लोगों की राय

नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक)

संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

269 पाठक हैं

मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


चेतन– इतनी अधीर क्यों हो रही हो? क्या मोक्षपद के निकट पहुंच कर उसी मायावी में संसार में लिप्त होना चाहती हो? यह तुम्हारे लिए कल्याणकारी न होगा।

ज्ञानी– मुझे मोक्षपद प्राप्त हो या न हो, यह ज्ञान अवश्य प्राप्त हो गया कि तुम धूर्त, कुटिल, भ्रष्ट, दुष्ट, पापी हो। तुम्हारे इस भेष का अपमान नहीं करना चाहती, पर यह समझ रखो कि तुम सरला स्त्रियों को इस भांति दगा देकर अपनी आत्मा को नरक की ओर ले जा रहे हो। तुमने मेरे शरीर को अपने कलुषित हाथों से स्पर्श करके सदा के लिए विकृत कर दिया। तुम्हारे मनोविकारों के सम्पर्क से मेरी आत्मा सदा के लिए दूषित हो गयी। तुमने मेरे व्रत की हत्या कर डाली। अब मैं अपने ही को अपना मुंह नहीं दिखा सकी। सतीत्व-जैसी अमूल्य वस्तु खोकर मुझे ज्ञात हुआ कि मानव चरित्र का कितना पतन हो सकता है। अगर तुम्हारे हृदय में मनुष्यतत्व का कुछ भी अंश शेष है तो मैं उसी को सम्बोधित करके विनय करती हूं कि अब अपनी आत्मा पर दया करो और इस दुष्टाचरण को त्याग कर सदवृत्तियों का आवाहन करो।

[कुटी से बाहर निकल कर गाड़ी में बैठ जाती है।]

कोचवान– किधर ले चलूं?

ज्ञानी– सीधे घर चलो।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book