नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
चौथा दृश्य
[स्थान– राजेश्वरी का मकान, समय– दस बजे रात।]
राजेश्वरी– (मन में) मेरे ही लिए जीवन का निर्वाह करना क्यों इतना कठिन हो रहा है? संसार में इतने आदमी पड़े हुए हैं। सब अपने-अपने धंधों में लगे हुए हैं। मैं ही क्यों इस चक्कर में डाली गयी हूं? मेरा क्या दोष है? मैंने कभी अच्छा खाने-पहनने या आराम से रहने की इच्छा की, जिसके बदले में मुझे यह दंड मिला है? जबरदस्ती इस कारागार में बन्द की गयी हूं। यह सब विलास की चीजें जबरदस्ती मेरे गले मढ़ी गयी हैं। एक धनी पुरुष मुझे अपने इशारों पर नचा रहा है। मेरा दोष इतना ही है कि मैं रूपवती हूं और निर्बल हूं। इसी अपराध की यह सजा मुझे मिल रही है। जिसे ईश्वर धन दे, उसे इतना सामर्थ्य भी दे कि धन की रक्षा कर सके। निर्बल प्राणियों को रत्न देना उन पर अन्याय करना है। हां! कंचनसिंह पर आज न जाने क्या बीती। सबलसिंह ने अवश्य ही उनको मार डाला होगा। मैंने उन पर कभी क्रोध चढ़ते नहीं देखा था। क्रोध में तो मानों उन पर भूत सवार हो जाता है। मरदों को उत्तेजित करना सरल है। उनकी नाड़ियों में रक्त की जगह रोष और ईर्ष्या का प्रवाह होता है। ईर्ष्या की ही मिट्टी से उनकी सृष्टि हुई है। यह सब विधाता की विषम लीला है।
[गाती है]
दयानिधि तेरी गति लखि न परी।
[सबलसिंह का प्रवेश]
राजेश्वरी– आइए, आपकी ही बाट जोह रही थी। उधर ही मन लगा हुआ था। आपकी बातें याद करके शंका और भय से चित्त बहुत व्याकुल हो रहा था। पूछते डरती हूं...
सबल– मलिन स्वर से जिस बात की तुम्हें शंका थी वह हो गयी।
राजेश्वरी– अपने ही हाथों?
सबल– नहीं। मैंने क्रोध के आवेग में चाहे मुंह से जो बक डाला हो पर अपने भाई पर मेरे हाथ नहीं उठ सके। पर इससे मैं अपने पाप का समर्थन नहीं करना चाहता। मैंने स्वयं हत्या की और उसका सारा भार मुझ पर है। पुरुष कड़े-से-कड़े आघात सह सकता है कड़ी-से-कड़ी मुसीबत झेल सकता है, पर यह चोट नहीं सह सकता। यही उसका मर्मस्थान है। एक ताले में दो कुंजियां साथ-साथ चली जायें, एक म्यान में साथ दो तलवारें रहें, एक कुल्हाड़ी में साथ दो बेंट लगें, पर एक स्त्री के दो चाहने वाले नहीं कर सकते, असम्भव है।
राजेश्वरी– एक पुरुष को चाहने वाली तो कई स्त्रियां होती हैं।
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