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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


सबल– यह उनके अपंग होने के कारण है। एक ही भाव दोनों के मन में उठते हैं। पुरुष शक्तिशाली है, वह अपने क्रोध को व्यक्त कर सकता है, स्त्री मन में ऐंठ कर रह जाती है।

राजेश्वरी– क्या आप समझते थे कि मैं कंचनसिंह को मुंह लगा रही हूं। उन्हें केवल यहां बैठे देखकर आपको इतना उबलना न चाहिए था।

सबल– तुम्हारे मुंह से यह तिरस्कार कुछ शोभा नहीं देता। तुमने अगर सिरे से ही उसे यहां न घुसने दिया होता तो आज यह नौबत न आती। तुम अपने को इस इलजाम से मुक्त नहीं कर सकती।

राजेश्वरी– एक तो आपने मुझ पर संदेह करके मेरा अपमान किया, अब आप इस हत्या का भार भी मुझ पर रखना चाहते हैं। मैंने आपके साथ ऐसा कोई व्यवहार नहीं किया था कि आप इतना अविश्वास करते।

सबल– राजेश्वरी इन बातों से दिल न जलाओ। मैं दुःखी हूं, मुझे तसकीन दो, मैं घायल हूं, मेरे घाव पर मरहम रखो। मैं वह रत्न हाथ से खो दिया जिसका जोड़ अब संसार में मुझे न मिलेगा। कंचन आदर्श भाई था। मेरा इशारा उसके लिए हुक्म था। मैंने जरा-सा इशारा कर दिया होता हो वह भूल कर भी इधर पग न रखता। पर मैं अंधा हो रहा था, उन्मत्त हो रहा था। मेरे हृदय की जो दशा हो रही है वह तुम देख सकती तो कदाचित तुम्हें मुझ पर दया आती। ईश्वर के लिए मेरे घावों पर नमक न छिड़को। अब तुम्हीं मेरे जीवन का आधार हो। तुम्हारे लिए मैंने इतना बड़ा बलिदान किया है। अब तुम मुझे पहले से कहीं अधिक प्रिय हो। मैंने पहले सोचा था, केवल तुम्हारे दर्शनों से तुम्हारी तिरछी चितवनों से मैं तृप्त हो जाऊंगा। मैं केवल तुम्हारा सहवास चाहता था, पर अब मुझे अनुभव हो रहा है कि मैं गुड़ खाना और गुलगुलों से परहेज करना चाहता था। मैं भरे प्याले को उछाल कर भी चाहता था कि उसका पानी न छलके। नदी में जाकर भी चाहता था कि दामन न भीगे। पर अब न तुमको पूर्णरूप से चाहता हूं। मैं तुम्हारा सर्वस्व चाहता हूं। मेरी विकल आत्मा के लिए संतोष का केवल यही एक आधार है। अपने कोमल हाथों को मेरी दहकती हुई छाती पर रखकर शीतल कर दो।

राजेश्वरी– मुझे अब आपके समीप बैठते हुए भय होता है। आपके मुख पर नम्रता और प्रेम की जगह अब क्रूरता और कपट की झलक है।

सबल– तुम अपने प्रेम से मेरे हृदय को शांत कर दो। इसी लिए इस समय तुम्हारे पास आया हूं। मुझे शांति दो। मैं निर्जन पार्क और नीरव नदी से निराश लौटा आता हूं। वहां शांति नहीं मिली। तुम्हें यह मुंह नहीं दिखाना चाहता था। हत्यारा बन कर तुम्हारे सम्मुख आते लज्जा आती थी। किसी को मुंह नहीं दिखाना चाहता। केवल तुम्हारे प्रेम की आशा, मुझे तुम्हारी शरण लायी। मुझे आशा थी, तुम्हें मुझ पर दया आयेगी, पर देखता हूं मेरा दुर्भाग्य यहां भी मेरा पीछा नहीं छोड़ता। राजेश्वरी, प्रिये, एक बार मेरी तरफ प्रेम की चितवनों में देखो मैं दुःखी हूं। मुझ से ज्यादा दुःखी कोई प्राणी संसार में न होगा। एक बार मुझे प्रेम से गले लगा लो, एक बार अपनी कोमल बाहें गर्दन में डाल दो, एक बार मेरे सिर को अपनी जांघों पर रख लो, प्रिये, मेरी यह अंतिम लालसा है। मुझे दुनिया से नामुराद मत जाने दो। मुझे चंद घंटों का मेहमान समझो।

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