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नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक)

संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


राजेश्वरी– (सजल नयन होकर) ऐसी बातें करके दिल न दुखाइए।

सबल– अगर इन बातों से तुम्हारा दिल दुखता है तो न करूंगा। पर राजेश्वरी, मुझे तुमसे इस निर्दयता की आशा न थी। सौंदर्य और दया में विरोध है, इसका मुझे अनुमान न था। मगर इसमें तुम्हारा दोष नहीं है। यह अवस्था ही ऐसी है। हत्यारे पर कौन दया करेगा? जिस प्राणी ने सगे भाई को ईर्ष्या और दम्भ के वश होकर वध करा दिया वह इसी योग्य है, कि चारों ओर उसे धिक्कार मिले। उसे कहीं मुंह दिखाने का ठिकाना न रहे। उसके पुत्र और स्त्री भी उसकी ओर से आंखें फेर लें। उसके मुंह में कालिमा पोत दी जाये और उसे हाथी के पैरों से कुचलवा दिया जाये। उसके पाप का यही दंड है। राजेश्वरी, मनुष्य कितना दीन, कितना परवश प्राणी है। अभी एक सप्ताह पहले मेरा जीवन कितना सुखमय था। अपनी नौका में बैठा हुआ धीमी-धीमी लहरों पर बहता, समीर की शीतल, मंद तरंगों का आनंद उठाता चला जाता था। कि एक ही क्षण में वे मंद तरंगें इतनी भयंकर हो जायेंगी, शीतल झोंके इतनी प्रबल हो जायेंगे कि नाव को उलट देंगे। सुख और दुःख हर्ष और शोक में उससे कहीं कम अंतर है जितना हम समझते हैं। आंखों का एक जरा-सा इशारा, मुंह का एक जरा-सा शब्द हर्ष को शोक और सुख को दुःख बना सकता है। लेकिन हम सब जानते हुए भी सुख पर लौ लगाये रहते हैं। यहां तक कि फांसी पर चढ़ने से एक क्षण पहले तक हमें सुख की लालसा घेरे रहती है। ठीक वही दशा मेरी है। जानता हूं कि चंद घंटों का और मेहमान हूं, निश्चय है फिर से आंखें सूर्य और आकाश को न देखेंगी, पर तुम्हारे प्रेम की लालसा हृदय से नहीं निकली।

राजेश्वरी– (मन में) इस समय यह वास्तव में बहुत दुःखी हैं। इन्हें जितना दंड मिलना चाहिए था उससे ज्यादा मिल गया। भाई के शोक में इन्होंने आत्मघात करने की ठानी है। मेरा जीवन तो नष्ट हो ही गया, अब इन्हें मौत के मुंह में झोकने की चेष्टा क्यों करूं? इनकी दशा देखकर दया आती है। मेरे मन के घातक भाव लुप्त हो रहे हैं। (प्रकट) आप इतने निराश क्यों हो रहे हैं? संसार में ऐसी बातें आये दिन होती रहती हैं। अब दिल को संभालिए। ईश्वर ने आपको पुत्र दिया है, सती स्त्री दी है। क्या आप उन्हें मंझधार में छोड़ देंगे? मेरे अवलम्ब भी आप ही हैं। मुझे द्वार-द्वार की ठोकर खाने के लिए छोड़ दीजिएगा? इस शोक को दिल से निकाल डालिए।

सबल– (खुश होकर) तुम भूल जाओगी कि मैं पापी-हत्यारा हूं?

राजेश्वरी– आप बार-बार इसकी चर्चा क्यों करते हैं।

सबल– तुम भूल जाओगी कि इसने अपने भाई को मरवाया है?

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