नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
|
269 पाठक हैं |
मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
राजेश्वरी– भयभीत होकर प्रेम दोषों पर ध्यान नहीं देता। वह गुणों ही पर मुग्ध होता है। आज मैं अंधी हो जाऊं तो क्या आप मुझे त्याग देंगे?
सबल– प्रिये, ईश्वर न करे, पर मैं तुमसे सच्चे दिल से कहता हूं कि काल की कोई गति, विधाता की कोई पिशाच-लीला, पापों का कोई प्रकोप मेरे हृदय से तुम्हारे प्रेम को नहीं निकाल सकता, हां नहीं निकाल सकता।
[गाता है]
काश तुम भी झांक लेते रौज़ ए दर से मुझे।
सांस पूरी हो चुकी, दुनिया से रूखसत हो चुका
तुम अब आये हो उठाने मेरे बिस्तर से मुझे।
क्यों उठाता है मुझे मेरी तमन्ना को निकाल
तेरे दर तक खींच लायी थी वही घर से मुझे।
हिज्र की शब कुछ यही मूनिस था मेरा, ऐ कज़ा
रूक जरा रो लेने दे मिल-मिलके बिस्तर से मुझे।
राजेश्वरी– मेरे दिल में आपका वही प्रेम है।
सबल– तुम मेरी हो जाओगी?
राजेश्वरी– और अब किसकी हूं?
सबल– तुम पूर्णरूप से मेरी हो जाओगी?
राजेश्वरी– आपके सिवा अब मेरा कौन है?
सबल– तो प्रिये, मैं अभी मौत को कुछ दिनों के लिए द्वार से टाल दूंगा। अभी न मरूंगा। पर हम अब यहां नहीं रह सकते। हमें कहीं बाहर चलना पड़ेगा, जहां अपना परिचित प्राणी न हो। चलो, आबू चलें, जी चाहे कश्मीर चलो, दो-चार महीने रहेंगे, फिर जैसी अवस्था होगी वैसा करेंगे। पर इस नगर में मैं नहीं रह सकता। यहां की एक-एक पत्ती मेरी दुश्मन है।
राजेश्वरी– घर के लोगों को किस पर छोड़िएगा?
|