नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
राजेश्वरी– वह डोल किसी भक्त ने अपने इष्टदेव को चढ़ाने के लिए एक हाथ से भरा था। जिसे आप प्रेम कहते हैं वह कामलिप्सा थी। आपने अपनी लालसा को शांत करने के लिए एक बसे-बसाये घर को उजाड़ दिया, उसके प्राणियों को तितर-बितर कर दिया। यह सब अनर्थ आपने अधिकार के बल पर किया। पर याद रखिए ईश्वर भी आपको इस पाप का दंड भोगने से नहीं बचा सकता। आपने मुझसे उस बात की आशा रखी जो कुलटायें ही कर सकती हैं। मेरी यह इज्जत आपने की। आंख की पुतली निकल जाये तो उसमें सूरमा क्या शोभा देगा? पौधे की जड़ काट कर फिर आप दूध और शहद से सींचे तो क्या फायदा? स्त्री का सत हर कर आप उसे विलास और भोग में डुबा ही दें तो क्या होता है। मैं अगर यह घोर अपमान चुपचाप सह लेती तो मेरी आत्मा का पतन हो जाता। मैं यहां उस अपमान का बदला लेने आयी हूं। आप चौंके नहीं, मैं मन में यही संकल्प करके आयी थी।
[ज्ञानी का प्रवेश]
ज्ञानी– देवी, तुझे धन्य है। तेरे पैरों पर शीश नवाती हूं।
सबल– ज्ञानी! तुम यहां?
ज्ञानी– क्षमा कीजिए। मैं किसी और विचार से नहीं आयी। आपको घर पर न देखकर मेरा चित्त व्याकुल हो गया।
सबल– यहां का पता कैसे मालूम होता?
ज्ञानी– कोचवान की खुशामद करने से।
सबल– राजेश्वरी, तुमने मेरी आंखें खोल दी। मैं भ्रम में पड़ा हुआ था। तुम्हारा संकल्प पूरा होगा। तुम सती हो। तुम्हारी प्रतिज्ञा पूरी होगी। मैं पापी हूं, मुझे क्षमा करना...(नीचे की ओर जाता है।)
ज्ञानी– मैं भी चलती हूं। राजेश्वरी, तुम्हारे दर्शन पा कर कृतार्थ हो गयी। (धीरे से) बहिन, किसी तरह इनकी जान बचाओ। तुम्हीं इनकी रक्षा कर सकती हो। (राजेश्वरी के पैरों पर गिर पड़ती है।)
राजेश्वरी– रानी जी, ईश्वर ने चाहा तो सब कुशल होगा।
ज्ञानी– तुम्हारे आशीर्वाद का भरोसा है।
[प्रस्थान]
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