नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
पांचवा दृश्य
[स्थान– गंगा के कगार पर एक बड़ा पुराना मकान, समय– बारह बजे रात, हलधर और उनके साथी डाकू बैठे हैं।]
हलधर– अब समय आ गया, मुझे चलना चाहिए।
एक डाकू रंगी-हम लोग भी तैयार हो जायें न? शिकारी आदमी है, कहीं पिस्तौल चला बैठे तो।
हलधर– देखी जायेगी, मैं जाऊंगा अकेले।
[कंचन का प्रवेश]
हलधर– अरे, आप अभी तक सोये नहीं?
कंचन– तुम लोग भैया को मारने पर तैयार हो, मुझे नींद कैसे आये?
हलधर– मुझे आपकी बातें सुनकर अचरज होता है। आप ऐसे पापी आदमी की रक्षा करना चाहते हैं जो अपने भाई की जान लेने पर तुल जाये।
कंचन– तुम नहीं जानते, वह मेरे भाई नहीं, मेरे पिता के तुल्य हैं। उन्होंने भी सदैव मुझे अपना पुत्र समझा है। उन्होंने मेरे प्रति जो कुछ किया उचित किया। उसके सिवा मेरे विश्वासघात का और कोई दंड न था। उन्होंने वही किया जो मैं आप करने जाता था। अपराध सब मेरा है। तुमने मुझ पर दया की है। इतनी दया और करो। इसके बदले में तुम जो कुछ कहो करने को तैयार हूं। मैं अपनी सारी कमाई जो २० हजार से कम नहीं है तुम्हें भेंट कर दूंगा। मैंने यह रुपये एक धर्मशाला और देवालय बनवाने के लिए संचित कर रखे थे। पर भैया के प्राणों का मूल्य धर्मशाला और देवालय से कहीं अधिक है।
हलधर– ठाकुर साहब, ऐसा कभी न होगा। मैंने धन के लोभ से यह भेष नहीं लिया है। मैं अपने अपमान का बदला लेना चाहता हूं। मेरा मर्याद इतना सस्ता नहीं है।
कंचन– मेरे यहां जितनी दस्तावेजें हैं वह सब तुम्हें दे दूंगा।
हलधर– आप व्यर्थ ही मुझे लोभ दिखा रहे हैं। मेरी इज्जत बिगड़ गयी। मेरे कुल में दाग लग गया। बाप-दादों के मुंह में कालिख लग गयी। इज्ज्त का बदला जान है, धन नहीं। जब तक सबलसिंह की लाश को अपनी आंखों से तड़पते न देखूंगा। मेरे हृदय की ज्वाला न शांत होगी।
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