नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
कंचन– तो फिर सवेरे तक मुझे भी जीता न पाओगे।
[प्रस्थान]
हलधर– भाई पर जान देते हैं।
रंगी– तुम भी तो हक-नाहक की जिद्द कर रहे हो। २० हजार नकद मिल रहा है। दस्तावेज भी इतने की ही होगी। इतना धन तो ऐसा ही भाग जागे तो हाथ लग सकता है। आधा तुम ले लो। आधा हम लोगों को दे दो। २० हजार में तो ऐसी-ऐसी बीस औरतें मिल जायेंगी।
हलधर– कैसी बेगैरतों की-सी बात करते हो। स्त्री चाहे सुंदर हो, चाहे कुरूप, कुल-मरजाद की देवी है। मरजाद रूपयों पर नहीं बिकती।
रंगी– ऐसा ही है तो उसी को क्यों मार डालते। न रहे बांस न बजे बांसुरी।
हलधर– उसे क्या मारूं। स्त्री पर हाथ उठाने में क्या जवांमरदी है।
रंगी– तो क्या उसे फिर रखोगे?
हलधर– मुझे क्या तुमने ऐसा बेगैरत समझ लिया है। घर में रखने की बात ही क्या, अब उसका मुंह भी नहीं देख सकता। वह कुलटा है, हरजाई है। मैंने पता लगा लिया है। वह अपने-आप घर से निकल खड़ी हुई। मैंने कब का उसे दिल से निकाल दिया। अब उसको याद भी नहीं करता। उसकी याद आते ही शरीर में ज्वाला उठने लगी है। अगर उसे मारकर कलेजा ठंडा हो सकता तो इतने दिनों चिंता और क्रोध की आग में जलता ही क्यों?
रंगी– मैं तो रुपयों का इतना बड़ा ढेर कभी हाथ से न जाने देता। मान मर्यादा सब ढकोसला है। दुनिया में ऐसी बातें आये दिन होती रहती हैं। लोग औरत को घर से निकाल देते हैं। बस।
हलधर– क्या कायरों की-सी बातें करते हो। रामचंद्र ने सीता जी के लिए लंका का राज विध्वंस कर दिया। द्रोपदी की मानहानि करने के लिए पांडवों ने कौरवों को निर्बन्स कर दिया। जिस आदमी के दिल में इतना अपमान होने पर भी क्रोध न आये, मरने-मारने पर तैयार न हो जाये, उसका खून न खौलने लगे, वह मर्द नहीं हिजड़ा है। हमारी इतनी दुर्गति क्यों हो रही है?
जिसे देखो वही हमें चार गालियां सुनाता है। इसका कारण यही है कि हम बेहया हो गये हैं। अपनी चमड़ी को प्यार करने लगे हैं। हमसें भी गैरत होती, अपने मान-अपमान का विचार होता तो मजाल थी कि कोई तिरछी आंखों से देख सकता। दूसरे देशों में सुनते हैं कि गालियों पर लोग मरने-मारने को तैयार हो जाते हैं। वहां कोई किसी को गाली नहीं दे सकता। किसी देवता का अपमान कर दो तो जान न बचे। यहां तक कि कोई किसी को ला-सखुन नहीं कह सकता नहीं तो खून की नदी बहने लगे। यहां क्या है, लात खाते हैं, घिनौनी गालियां सुनते हैं, धर्म का नाश अपनी आंखों से देखते हैं, पर जूं नहीं रेंगती, खून जरा भी गर्म नहीं होता। चमड़ी के पीछे सब तरह की दुर्गति सहते हैं, जान इतनी प्यारी हो गयी है। मैं ऐसे जीने से मौत को हजार दर्जे अच्छा समझता हूं। बस यही समझ लो कि जो आदमी प्रान को जितना ही प्यारा समझता है वह उतना ही नीच है। जो औरत हमारे घर में रहती थी, हमसे हंसती थी, हमसे बोलती थी, हमारे खाट पर सोती थी। वह अब भी (क्रोध में उन्मत्त होकर) तुम लोग मेरे लौटने तक यहीं रहो। कंचन को देखते रहना।
[चला जाता है।]
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