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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट

छठा दृश्य

[स्थान– सबलसिंह का कमरा, समय– १ बजे रात।]

सबल– (ज्ञानी से) अब जाकर सो रहो। रात कम है।

ज्ञानी– आप लेटें, मैं चली जाऊंगी। अभी नींद नहीं आती।

सबल– तुम अपने दिल में मुझे बहुत नीच समझ रही होगी?

ज्ञानी– मैं आपको अपना इष्ट देव समझती हूं।

सबल– क्या इतना पतित हो जाने पर भी?

ज्ञानी– मैली वस्तुओं के मिलने से गंगा का माहात्म्य कम नहीं होता।

सबल– मैं इस योग्य भी नहीं हूं कि तुम्हें स्पर्श कर सकूं। पर मेरे हृदय में इस समय तुमसे गले मिलने की प्रबल उत्कंठा है। याद ही नहीं आता कि कभी मेरा मन इतना अधीर हुआ हो। जी चाहता है तुम्हें प्रिये कहूं, आलिंगन करूं पर हिम्मत नहीं पड़ती। अपनी ही आंखों में इतना गिर गया हूं। (ज्ञानी रोती हुई जाने लगती है, सबल रास्ते में खड़ा हो जाता है।) प्रिये, इतनी निर्दयता न करो। मेरा हृदय टुकड़े-टुकड़े हुआ जाता है। (रास्ते से हट कर) जाओ! मुझे तुम्हें रोकने का कोई अधिकार नहीं है। मैं पतित हूं, पापी हूं, दुष्टाचारी हूं। न जाने क्यों पिछले दिनों की याद आ गयी, जब मेरे और तुम्हारे बीच में यह विच्छेद न था, जब हम तुम प्रेम-सरोवर के तट पर विहार करते थे, उसकी तरंगों के साथ झूमते थे। वह कैसे आनन्द के दिन थे? अब वह दिन फिर न आयेंगे। जाओ, न रोकूंगा, पर मुझे बिल्कुल नजरों से न गिरा दिया हो तो एक बार प्रेम की चितवन से मेरी तरफ देख लो। मेरा संतप्त हृदय उस प्रेम की फुहार से तृप्त हो जायेगा। इतना भी नहीं कर सकती? न सही। मैं तो तुमसे कुछ कहने के योग्य ही नहीं हूं। तुम्हारे सम्मुख खड़े होते, तुम्हें यह काला मुंह दिखाते, मुझे लज्जा आनी चाहिए थी। पर मेरी आत्मा का पतन हो गया है। हां, तुम्हें मेरी एक बात अवश्य माननी पड़ेगी, उसे मैं जबरदस्ती मनवाऊंगा, जब तक न मानोगी जाने न दूंगा। मुझे एक बार अपने चरणों पर सिर झुकाने दो।

[ज्ञानी रोती हुई अन्दर के द्वार की तरफ बढ़ती है।]

सबल– क्या मैं अब इस योग्य भी नहीं रहा? हां, मैं अब घृणित प्राणी हूं, जिसकी आत्मा का अपहरण हो चुका है। पूजी जानेवाली प्रतिमा टूट कर पत्थर का टुकड़ा हो जाती है, उसे किसी खंडहर में फेंक दिया जाता है। मैं वही टूटी हुई प्रतिमा हूं और इसी योग्य हूं कि ठुकरा दिया जाऊं। तुमसे कुछ कहने का, तुम्हारी दया-याचना करने के योग्य मेरा मुंह ही नही रहा। जाओ। हम-तुम बहुत दिनों तक साथ रहे। अगर मेरे किसी व्यवहार से, किसी शब्द से, किसी आक्षेप से तुम्हें दुःख हुआ हो तो क्षमा करना। मुझ-सा अभागा संसार में न होगा जो तुम जैसी देवी पाकर उसकी कद्र न कर सका।

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