नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
सातवां दृश्य
[स्थान– सबलसिंह का मकान। समय– २’’ बजे रात, सबलसिंह अपने बाग में हौज के किनारे बैठे हुए हैं।]
सबल– (मन में) इस जिन्दगी पर धिक्कार है। चारों तरफ अंधेरा है, कहीं प्रकाश की झलक तक नहीं। सारे मनसूबे, सारे इरादे खाक में मिल गये। अपने जीवन को आदर्श बनाना चाहता था, अपने कुल को मर्यादा के शिखर पर पहुंचाना चाहता था, देश और राष्ट्र की सेवा करना चाहता था, समग्र देश में अपनी कीर्ति फैलाना चाहता था। देश को उन्नति के परम स्थान पर देखना चाहता था। उन बड़े-बड़े इरादों का कैसा करुणाजनक अंत हो रहा है। फूले-फले वृक्ष की जड़ में कितनी बेदरदी से आरा चलाया जा रहा है। कामलोलुप होकर मैंने अपनी जिंदगी तबाह कर दी। मेरी दशा उन मांझी की-सी है जो नांव को बोझने के बाद शराब पी ले और नशे में नाव को भंवर में डाल दे। भाई की हत्या करके भी अभीष्ट न पूरा हुआ। जिसके लिए इन पाप कुंड में कूदा वह भी अब मुझसे घृणा करती है। कितनी घोर निर्दयता है। हाय! मैं क्या जानता था कि राजेश्वरी मन में मेरे अभिष्ट का दृढ़ संकल्प करके यहां आयी है। मैं क्या जानता था कि वह मेरे साथ त्रियाचरित्र खेल रही है। एक अमूल्य अनुभव प्राप्त हुआ। स्त्री अपने सतीत्व की रक्षा करने के लिए, अपने अपमान का बदला लेने के लिए, कितना भयंकर रूप धारण कर सकती है। गऊ कितनी सीधी होती है, पर किसी को अपने बछड़े के पास आते देखकर कितनी सतर्क हो जाती है। सती स्त्रियां भी अपने व्रत पर आघात होते देखकर जान पर खेल जाती है। कैसी प्रेम में सनी हुई बातें करती थी। जान पड़ता था, प्रेम के हाथों बिक गयी हो। ऐसी सुंदरी, ऐसी सरला, मृदु-प्रकृति, ऐसी विनयशीला, ऐसा कोमल-हृदया रमणियां भी छल-कौशल में इतनी निपुण हो सकती है! उसकी निष्ठुरता मैं सह सकता था। किंतु ज्ञानी की घृणा नहीं सही जाती, उसकी उपेक्षा-सूचक दृष्टि के सम्मुख खड़ा नहीं हो सकता। जिस स्त्री का अब तक आराध्य देव था, जिसकी मुझ पर अंखड भक्ति थी, जिसका सर्वस्व मुझपर अर्पण था, वही स्त्री अब मुझे इतना नीच और पतित समझ रही है। ऐसे जीने पर धिक्कार है। एक बार प्यारे अचल को भी देख लूं। बेटा, तुम्हारे प्रति मेरे दिल में बड़े-बड़े अरमान थे। मैं तुम्हारा चरित्र आदर्श बनाना चाहता था, पर कोई अरमान न निकला। अब न जाने तुम्हारे ऊपर क्या पड़ेगी। ईश्वर तुम्हारी रक्षा करें! लोग कहते हैं प्राण बड़ी प्रिय वस्तु है। उसे देते हुए बड़ा कष्ट होता है। मुझे तो जरा भी शंका, जरा भी भय नहीं है। मुझे तो प्राण देना खेल-सा मालूम हो रहा है। वास्तव में जीवन ही खेल है, विधाता का क्रीड़ा-क्षेत्र! (पिस्तौल निकाल कर) हां, दोनों गोलियां हैं काम हो जायेगा। मेरे मरने की सूचना जब राजेश्वरी को मिलेगी तो एक क्षण के लिए उसे शोक तो होगा ही, चाहे फिर हर्ष हो। आंखों में आंसू भर आयेंगे। अभी मुझे पापी, अत्याचारी, विषयी समझ रही है, सब ऐब-ही-ऐब दिखायी दे रहे हैं। मरने पर कुछ तो गुणों की याद आयेगी। मेरी कोई बात तो उसके कलेजे में चुटकियां लेगी। इतना तो जरूर ही कहेगी कि उसे मुझसे सच्चा प्रेम था। शहर में मेरी सार्वजनिक सेवाओं की प्रशंसा होगी। लेकिन कहीं यह रहस्य खुल गया तो मेरी सारी कीर्ति पर पानी फिर जायेगा। यह ऐब गुणों को छिपा लेगा, जैसे सफेद चादर पर काला धब्बा, या सर्वांग सुंदर चित्र पर एक छींटा। बेचारी ज्ञानी तो यह समाचार पाते ही मूर्च्छित होकर गिर पड़ेगी, फिर शायद कभी न सचेत हो। यह उसके लिए वज्रघात होगा। चाहे वह मुझसे कितनी ही घृणा करे, मुझे कितना ही दुरात्मा समझे, पर उसे मुझसे प्रेम है, अटल प्रेम है, वह मेरा अकल्याण नहीं देख सकती। जब से मैंने उसे अपना वृत्तांत सुनाया है वह कितनी चिंतित, कितनी सशंक हो गयी है। प्रेम के सिवा और कोई शक्ति न थी जो उसे राजेश्वरी के घर खींच ले जाती।
[हलधर चारदीवारी कूदकर बाग में आता है और धीरे-धीरे इधर-उधर ताकता हुआ सबल के कमरे की तरफ जाता है।]
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