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नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक)

संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


हलधर– (मन में) यहां किसी की आवाज आ रही है। (भाला संभालकर) यहां कौन बैठा हुआ है। अरे! यह तो सबलसिंह ही है। साफ उसी की आवाज है इस वक्त यहां बैठा क्या कर रहा है? अच्छा है यहीं काम तमाम कर दूंगा। कमरे में न जाना पड़ेगा। इसी हौज में फेंक दूंगा सुनूं क्या कह रहा है।

सबल– बस, अब बहुत सोच चुका। मन इस तरह बहाना ढूंढ रहा है। ईश्वर, तुम दया के सागर हो, क्षमा की मूर्ति हो। मुझे क्षमा करना अपनी दीनवत्सलता से मुझे वंचित न करना। कहां निशाना लगाऊं? सिर में लगाने से तुरंत अचेत हो जाऊंगा। कुछ न मालूम होगा, प्राण कैसे निकलते हैं। सुनता हूं प्राण निकलने में कष्ट नहीं होता। बस छाती पर निशाना मारूं।

[पिस्तौल का मुंह छाती की तरफ फेरता है। सहसा हलधर भाला फेंक कर झपटता है और सबलसिंह के हाथ से पिस्तौल छीन लेता है।]

सबल– (अचम्भे से) कौन?

हलधर– मैं हूं हलधर।

सबल– तुम्हारा काम तो मैं ही किये देता था। तुम हत्या से बच जाते। उठा लो पिस्तौल।

हलधर– आपके ऊपर मुझे दया आती है।

सबल– मैं पापी हूं, कपटी हूं। मेरे ही हाथों तुम्हारा घर सत्यानाश हुआ। मैंने तुम्हारा अपमान किया, तुम्हारी इज्जत लूटी, अपने सगे भाई का वध कराया। मैं दया के योग्य नहीं हूं।

हलधर– कंचनसिंह को मैंने नहीं मारा।

सबल– (उछल कर) सच कहते हो?

हलधर– वह आप ही गंगा में कूदने जा रहे थे। मुझे उन पर दया आ गयी। मैंने समझा था, आप मेरा सर्वनाश करके भोग-विलास में मस्त हैं। तब मैं आपके खून का प्यासा हो गया था। पर अब देखता हूं तो आप अपने किये पर लज्जित हैं, पछता रहे हैं, इतने दुःखी हैं कि प्राण तक देने को तैयार हैं। ऐसा आदमी दया के योग्य है। उस पर क्या हाथ उठाऊं।

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