नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
सबल– हलधर के पैरों पर गिर कर तुमने कंचन की जान बचा ली, इसके लिए मैं मरते दम तक तुम्हारा यश मानूंगा। मैं न जानता था कि तुम्हारा हृदय इतना कोमल और उदार है। तुम पुण्यात्मा हो, देवता हो। मुझे ले चलो। कंचन को देख लूं। हलधर, मेरे पास अगर कुबेर का धन होता तो तुम्हारी भेंट कर देता। तुमने मेरे कुल को सर्वनाश से बचा लिया।
हलधर– मैं सवेरे उन्हें साथ लाऊंगा।
सबल– नहीं, इसी वक्त तुम्हारे साथ चलूंगा। अब सब्र नहीं हैं।
हलधर– चलिए।
[दोनों फाटक खोल कर चले जाते हैं।]
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