लोगों की राय

नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक)

संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

269 पाठक हैं

मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट

पांचवां अंक

पहला दृश्य

[स्थान– डाकुओं का मकान, समय– २ बजे रात, हलधर डाकुओं के मकान के सामने बैठा हुआ है।]

हलधर– (मन में) दोनों भाई कैसे टूट कर गले मिले हैं। मैं न जानता था कि बड़े आदमियों में भाई-भाई में भी इतना प्रेम होता है। दोनों के आंसू ही न थमते थे। बड़ी कुशल हुई कि मैं मौके से पहुंच गया, नहीं तो वंश का अन्त हो जाता। मुझे तो दोनों भाइयों से ऐसा प्रेम हो गया है, मानो मेरे अपने भाई हैं। मगर आज तो मैंने उन्हें बचा लिया। कौन कह सकता है वह फिर एक दूसरे के दुश्मन न हो जायेंगे। रोग की जड़ तो मन में जन्मी हुई है। उसको काटे बिना रोगी की जान कैसे बचेगी। राजेश्वरी के रहते हुए इनके मन की मैल न मिटेगी। दो-चार दिन में इनमें फिर अनबन हो जायेगी। इस अभागिनी ने मेरे कुल में दाग लगायी। अब इस कुल का सत्यानाश कर रही है। उसे मौत भी नहीं आ जाती। जब तक जियेगी मुझे कलंकित करती रहेगी। बिरादरी में कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहा। सब लोग मुझे बिरादरी से निकाल देंगे। हुक्का-पानी बन्द कर देंगे। हेठी और बदनामी होगी वह घाटे में। वह तो यहां महल में रानी बनी बैठी अपने कुकर्म का आनन्द उठाया करे और मैं इसके कारण बदनामी उठाऊं। अब तक उसको मारने का जी न चाहता था। औरतों पर हाथ उठाना नीचता का काम समझता था। पर अब वह नीचता करनी पड़ेगी। उसके लिये किये बिना सब खेल बिगड़ जायेगा।

[चेतनदास का प्रवेश]

चेतनदास– यहां कौन बैठा है।

हलधर– मैं हूं हलधर।

चेतन– खूब मिले। बताओ सबलसिंह का क्या हाल हुआ? वध कर डाला?

हलधर– नहीं उन्हें मरने से बचा लिया।

चेतन– (खुश होकर) बहुत अच्छा किया। मुझे यह सुनकर बड़ी खुशी हुई। सबलसिंह कहां है?

हलधर– मेरे घर।

चेतन– ज्ञानी जानती है कि वह जिन्दा है?

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book