नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
हलधर– नहीं, उसे अब तक इसकी खबर नहीं मिली।
चेतन– तो उसे जल्द खबर दो नहीं तो उससे भेंट न
होगी। वह घर में नहीं है। न जाने कहां गयी? उसे यह खबर मिल जायेगी तो कदाचित उसकी जान बच जाये। मैं उसकी टोह में जा रहा हूं। इस अंधेरी रात में कहां खोजूं?
(प्रस्थान)
हलधर– (मन में) यह डायन न जाने कितनी जाने ले कर संतुष्ट होगी। ज्ञानी देवी है। उसने सबलसिंह को कमरे में न देखा होगा। समझी होगी वह गंगा में डूब मरे। कौन जाने इसी इरादे से वह भी घर से निकल खड़ी हुई हो। चलकर अपने आदमियों को उसका पता लगाने के लिए दौड़ा दूं। उसकी जान मुफ्त में चली जायेगी। क्या दिल्लगी है कि रानी तो मारी-मारी फिरे और कुलटा महल में सुख की नींद सोये।
[अचल दूसरी ओर से हवाई बन्दूक लिए आता है।]
हलधर– कौन?
अचल– अचलसिंह-कुंअर सबलसिंह का पुत्र।
हलधर– अच्छा, तुम खूब आ गये। पर अंधेरी रात में तुम्हें डर नहीं लगा?
अचल– डर किस बात का? मुझे डर नहीं लगता। बाबूजी ने मुझे बताया है कि डरना पाप है!
हलधर– जाते कहां हो?
अचल– कहीं नहीं।
हलधर– तो इतनी रात गये घर से क्यों निकले?
हलधर– तुम कौन हो?
हलधर– मेरा नाम हलधर है।
अचल– अच्छा तुम्हीं ने माता जी की जान बचायी थी?
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