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नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक)

संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


हलधर– जान तो भगवान ने बचायी, मैंने तो केवल डाकुओं को भगा दिया था। तुम इतनी रात गये अकेले कहां जा रहे हो?

अचल– किसी से कहोगे तो नहीं?

हलधर– नहीं, किसी से न कहूंगा।

अचल– तुम बहादुर आदमी हो। मुझे तुम्हारे ऊपर विश्वास है। तुमसे कहने में शर्म नहीं है। यहां कोई वेश्या है। उसने चाचीजी को और बाबूजी को विष देकर मार डाला है। अम्मां जी ने शौक से प्राण त्याग दिये। वह स्त्री थीं, क्या कर सकती थीं। अब मैं उस वेश्या के घर जा रहा हूं। इसी वक्त बन्दूक से उसका सिर उड़ा दूंगा। (बन्दूक तान कर दिखाता है)।

हलधर– तुमसे किसने कहा?

अचल– मिसराइन ने। चाचाजी कल से घर पर नहीं है।

बाबूजी भी दस बजे रात से नहीं है। न घर में अम्मा का पता है। मिसराइन सब हाल जानती है।

हलधर– तुमने वेश्या का घर देखा है?

अचल– नहीं, घर तो नहीं देखा है।

हलधर– तो उसे मारोगे कैसे?

अचल– किसी से पूछ लूंगा।

हलधर– तुम्हारे चाचा जी और बाबू जी तो मेरे घर में हैं।

अचल– झूठ कहते हो। दिखा दोगे?

हलधर– कुछ इनाम दो तो दिखा दूं।

अचल– चलो, क्या दिखाओगे। वह लोग अब स्वर्ग में होंगे। हां, राजेश्वरी का घर दिखा दो तो जो कहो वह दूं।

हलधर– अच्छा मेरे साथ आओ, मगर बन्दूक ले लूंगा।

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