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नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक)

संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


[दोनों घर में जाते हैं, सबल और कंचन चकित होकर अचल को देखते हैं, अचल दौड़ कर बाप की गरदन से चिपट जाता है।]

हलधर– (मन में) अब यहां नहीं रह सकता। फिर तीनों रोने लगे? बाहर चलूं। कैसा होनहार बालक है। (बाहर आकर मन में) यह बच्चा तक उसे वेश्या कहता है। वेश्या है ही। सारी दुनिया यही कहती होगी। अब तो और भी गुल खिलेगा। अगर दोनों भाइयों ने उसे त्याग दिया तो पेट के लिए उसे अपनी लाज बेचनी पड़ेगी। ऐसी हयादार नहीं है कि जहर खाकर मर जाये। जिसे मैं देवी समझता था। वह ऐसी कुल-कुलंकिनी निकली। तूने मेरे साथ ऐसा छल किया! अब दुनिया को कौन मुंह दिखाऊं। सब की एक ही दवा है। न बांस रहे न बांसुरी बजे। तेरे जीने से सब की हानि है। किसी का लाभ नहीं। तेरे मरने से सब का लाभ है, किसी की हानि नहीं। उससे कुछ पूछना व्यर्थ है। रोयेगी, गिड़गिड़ायेगी, पैरों पड़ेगी। जिसने आन बेंच दी वह अपनी जान बचाने के लिए सभी तरह की चालें चल सकती है। कहेगी, मुझे सबलसिंह जबरदस्ती निकाल लाये, मैं तो आती न थी। न जाने क्या-क्या बहाने करेगी। उससे सवाल-जवाब करने की जरूरत नहीं। चलते ही काम तमाम कर दूंगा...

[हथियार संभाल कर चल खड़ा होता है।]

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