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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट

दूसरा दृश्य

[स्थान– शहर की एक गली, समय– ३ बजे रात, इन्स्पेक्टर और थानेदार की चेतनदास से मुठभेड़]

इन्स्पेक्टर– महाराज, खूब मिले। मैं तो आपके ही दौलतखाने की तरफ जा रहा था। लाइए दूध के धुले हुए। पूरे एक हजार, कमी की गुंजाइश नहीं, बेशी की हद नहीं।

थानेदार– आपने जमानत न कर ली होती तो उधर भी हजार-पांच सौ पर हाथ साफ करता।

चेतनदास– इस वक्त मैं दूसरी फिक्र में हूं। फिर कभी आना।

इन्स्पेक्टर– जनाब, हम आपके गुलाम नहीं हैं जो बार-बार सलाम करने को हाजिर हों। आपने आज वादा किया था। वादा पूरा कीजिए। कील व काल की जरूरत नहीं।

चेतनदास– कह दिया, मैं इस समय दूसरी चिंता में हूं। फिर इस संबंध में बातें होंगी।

इन्स्पेक्टर– आपका क्या एतबार, इसी वक्त की गाड़ी से हरद्वार की राह लें। पुलिस के मुआमले नकद होते हैं।

एक सिपाही– लाओ नगद-नारायन निकालो। पुलिस से ई फेरफार न चल पइहैं। तुमने ऐसे साधुन का इहां रोज चराइत हैं।

इन्स्पेक्टर– आप हैं किस गुमान में। यह चालें अपने भोले-भाले चेले-चपाड़ों के लिए रहने दीजिए, जिन्हें आप नजात देते हैं। हमारी नजात के लिए आपके रुपये काफी है। उससे हम फरिश्तों को भी राह पर लगा लेंगे। दारोगा जी, वह शेर आपको याद है।

दारोगा– जी हां, ऐ जर तू खुदा नई, बलेकिन बखुदा हाशा रब्बी व फाजिल हो जाती।

इन्स्पेक्टर– मतलब यह है कि रुपया खुदा नहीं है लेकिन खुदा के दो सबसे बड़े औसाफ उसमें मौजूद हैं। परवरिश करना और इन्सान की जरूरतों को रफा करना।

चेतनदास– कल किसी वक्त आइएगा।

इन्स्पेक्टर– (रास्ते में खड़े होकर) कल आने वाले पर लानत है। एक भले आदमी की इज्जत खाक में मिलवा कर अब आप यों झांसा देना चाहते हैं। कहीं साहब बहादुर ताड़ जाते तो नौकरी के लाले पड़ जाते।

चेतनदास– रास्ते से हटो (आगे बढ़ना चाहता है)।

इन्स्पेक्टर– (हाथ पकड़ कर) इधर आइए, इस सीनाजोरी से काम न चलेगा!

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