नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
चेतनदास– हाथ झपट कर छुड़ा लेता है और इन्स्पेक्टर को जोर से धक्का मार कर गिरा देता है।
दारोगा– गिरफ्तार कर लो। रहजन है।
चेतनदास– अगर कोई मेरे निकट आया तो गर्दन उड़ा दूंगा।
[दारोगा पिस्तौल उठाता है, लेकिन पिस्तौल नहीं चलती, चेतनदास उसके हाथ से पिस्तौल छीन कर उसकी छाती पर निशाना लगाता है।]
दारोगा– स्वामी जी, खुदा के वास्ते रहम कीजिए। ताजीस्त आपका गुलाम रहूंगा।
चेतनदास– मुझे तुझ जैसे दुष्टों की गुलामी की जरूरत नहीं। (दोनों सिपाही भाग जाते हैं। थानेदार चेतनदास के पैरों पर गिर पड़ता है।) बोल, कितने रुपये लेगा?
थानेदार– महाराज, मेरी जां बख्श दीजिए। जिंदा रहूंगा तो आपके एक बाल से बहुत रुपये मिलेंगे।
चेतनदास– अभी गरीबों को सताने की इच्छा बनी हुई है। तुझे मार क्यों न डालूं। कम-से-कम एक अत्याचारी का भार तो पृथ्वी पर कम हो जाये।
थानेदार– नहीं महाराज, खुदा के लिए रहम कीजिए। बाल-बच्चे दाने बगैर मर जायेंगे। अब कभी किसी को न सताऊंगा। अगर एक कौड़ी भी रिश्वत लूं तो तेरे अस्ल में फर्क समझिएगा। कभी हराम के माल के करीब न जाऊंगा।
चेतनदास– अच्छा तुम इस इंस्पेक्टर के सिर पर पचास जूते गिन कर लगाओ तो छोड़ दूं।
थानेदार– महाराज, वह मेरे अफसर हैं। मैं उनकी शान में ऐसी बे अदबी क्योंकर कर सकता हूं। रिर्पोट कर दें तो बर्खास्त हो जाऊं।
चेतन– तो फिर आखें बंद कर लो और खुदा को याद करो, घोड़ा गिरता है।
थानेदार– हुजूर, जरा ठहर जायें, हुक्म की तामील करता हूं। कितने जूते लगाऊं?
चेतन– पचास से कम न ज्यादा।
थानेदार– इतने जूते पड़ेंगे तो चांद खुल जायेगी। नाल लगी हुई है।
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