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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


चेतन– कोई परवाह नहीं। उतार लो जूते।

[थानेदार जूते पैर से निकाल कर इन्स्पेक्टर के सिर पर लगाता है, इन्स्पेक्टर चौंक कर उठ बैठता है, दूसरा जूता फिर पड़ता है।]

इन्स्पेक्टर– शैतान कहीं का, मलऊन।

थानेदार– मैं क्या करूं? बैठ जाइए, पचास लगा लूं। इतनी इनायत कीजिए! जान तो बचे।

[इन्स्पेक्टर उठ कर थानेदार से हाथापाई करने लगता है, दोनों एक दूसरे को गालियां देते हैं, दांत काटते हैं।]

चेतनदास– जो जीतेगा उसे इनाम दूंगा। मेरी कुटी पर आना। खूब लड़ो, देखें कौन बाजी ले जाता है। (प्रस्थान)

इन्स्पेक्टर– तुम्हारी इतनी मजाल! बर्खास्त न करा दिया तो कहना।

थानेदार– क्या करता, सीने पर पिस्तौल का निशाना लगाये तो खड़ा था।

इन्स्पेक्टर– यहां कोई सिपाही तो नहीं है?

थानेदार– वह दोनों तो पहले ही भाग गये।

इन्स्पेक्टर– अच्छा, खैरियत चाहो तो चुपके से बैठ जाओ और मुझे गिन कर सौ जूते लगाने दो, वरना कहे देता हूं कि सुबह को तुम थाने में न रहोगे। पगड़ी उतार लो।

थानेदार– मैंने तो आपकी पगड़ी नहीं उतारी थी।

इन्स्पेक्टर– उस बदमाश साधु को यह सूझी ही नहीं।

थानेदार– आप तो दूसरे ही हाथ पर उठ खड़े हुए थे।

इन्स्पेक्टर– खबरदार, जो यह कलमा फिर मुंह से निकला। दो के दस तो तुम्हें जरूर लगाऊंगा। बाकी फ़ी पापोश एक रुपये के हिसाब से माफ कर सकता हूं।

[दोनों सिपाही आ जाते है, दारोगा सिर पर साफा रख लेता है, इन्स्पेक्टर क्रोधपूर्ण नेत्रों से उसे देखता है और सब गश्त पर निकल जाते हैं।]

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