नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
|
269 पाठक हैं |
मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
तीसरा दृश्य
[स्थान– राजेश्वरी का कमरा, समय– ३ बजे रात, फानूस जल रही है, राजेश्वरी पानदान खोले फर्श पर बैठी है।]
राजेश्वरी– (मन में) मेरे मन की सारी अभिलाषाएं पूरी हो गयीं। जो प्रण करके घर से निकली थी वह पूरा हो गया। जीवन सफल हो गया। अब जीवन में कौन-सा सुख रखा है। विधाता की लीला विचित्र है। संसार के और प्राणियों का जीवन धर्म से सफल होता है। अहिंसा ही सबकी मोक्षदाता है। मेरा जीवन अधर्म से सफल हुआ, हिंसा से ही मेरा मोक्ष हो रहा है। अब कौन मुंह लेकर मधुवन जाऊं, मैं कितनी ही पतिव्रता बनूं, किसे विश्वास आयेगा? मैंने यहां कैसे अपना धर्म निबाहा, इसे कौन मानेगा? हाय! किसकी हो कर रहूंगी? हलधर का क्या ठिकाना? न जाने कितनी जानें ली होंगी, कितनों का घर लुटा होगा, कितनों के खून से हाथ रंगे होंगे, क्या-क्या कुकर्म किये होंगे। वह अगर मुझे पतिता और कुलटा समझते हैं तो मैं भी उन्हें नीच और अधम समझती हूं। वह मेरी सूरत न देखना चाहते हों तो मैं उनकी परछाई भी अपने ऊपर नहीं पड़ने देना चाहती। अब उनसे मेरा कोई संबंध नहीं। मैं अनाथ हूं, अभागिनी हूं, संसार में कोई मेरा नहीं है।
[कोई किवाड़ चटखाटा है, लालटेन लेकर नीचे जाती है, और किवाड़ खोलती है, ज्ञानी का प्रवेश।]
ज्ञानी– बहिन, क्षमा करना, तुम्हें असमय कष्ट दिया। मेरे स्वामी जी यहां हैं या नहीं? मुझे एक बार उनके दर्शन कर लेने दो।
राजेश्वरी– रानी जी, सत्य कहती हूं वह यहां नहीं आये।
ज्ञानी– यहां नहीं आये?
राजेश्वरी– न! जब से गये हैं फिर नहीं आये।
ज्ञानी– घर पर भी नहीं है। अब किधर जाऊं? भगवन्, उनकी रक्षा करना। बहिन, अब मुझे उनके दर्शन न होंगे। उन्होंने कोई भंयकर काम कर डाला। शंका से मेरा हृदय कांप रहा है। तुमसे उन्हें प्रेम था। शायद वह एक बार फिर आयें। उनसे कह देना, ज्ञानी तुम्हारे पदरज को शीश पर चढ़ाने के लिए आयी थी। निराश होकर चली गयी। उनसे कह देना वह अभागिनी, भ्रष्टा, तुम्हारे प्रेम के योग्य नहीं रही।
[हीरे की कनी खा लेती है।]
राजेश्वरी– रानी जी, आप देवी हैं, वह पतित हो गये हों, पर आप का चरित्र उज्जवल रत्न है। आप क्यों क्षोभ करती हैं!
ज्ञानी– बहिन, कभी यह घमंड था, पर अब नहीं है।
[उसका मुख पीला होने लगता है और पैर लड़खड़ाते हैं।]
|