नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
राजेश्वरी– रानी जी कैसा जी है?
ज्ञानी– कलेजे में आग-सी लगी हुई है। थोड़ा-सा ठंडा पानी दो। मगर नहीं, रहने दो। जबान सूखी जाती है। कंठ से कांटे पड़ गये हैं। आत्मगौरव से बढ़ कर कोई चीज नहीं। उसे खो कर जिये तो क्या जिये।
राजेश्वरी– आपने कुछ खा तो नहीं लिया?
ज्ञानी– तुम आज ही यहां से चली जाओ। अपने पति के चरणों पर गिर कर अपना अपराध क्षमा कर लो। वह वीरात्मा हैं। एक बार मुझे डाकुओं से बचाया था। तुम्हारे ऊपर दया करेंगे। ईश्वर इस समय उनसे मेरी भेंट करवा देते तो मैं उनसे शपथ खाकर कहती, इस देवी के साथ तुमने बड़ा अन्याय किया है। वह ऐसी पवित्र है जैसे फूल की पंखडियों पर पड़ी हुई ओस की बूंदें या प्रभात काल की निर्मल किरणें। मैं सिद्ध करती कि इसकी आत्मा पवित्र है।
[पीड़ा से विकल होकर बैठ जाती है।]
राजेश्वरी– (मन में) इन्होंने अवश्य कुछ खा लिया। आंखें पथरायी जाती हैं, पसीना निकल रहा है। निराशा और लज्जा ने अंत में इनकी जान ही ले कर छोड़ी मैं इनकी प्राणघातिका हूं। मेरे ही कारण इस देवी की जान जा रही है। इसे मर्यादा-पालन कहते हैं। एक मैं हूं कि कष्ट और अपमान भोगने लिए बैठी हूं। नहीं देवी, मुझे भी साथ लेती चलो। तुम्हारे साथ मेरी भी लाज रह जायेगी। तुम्हें ईश्वर ने क्या नहीं दिया। दूध-पूत, मान-महातम सभी कुछ तो है। पर केवल पति के पतित हो जाने के कारण तुम अपने प्राण त्याग रही हो। तो मैं जिसका आंसू पोंछनेवाला भी कोई नहीं, कौन-सा मुख भोगने के लिए बैठी रहूं?
ज्ञानी– (सचेत होकर) पानी-पानी।
राजेश्वरी– (कटोरे में पानी देती) हुई पी लीजिए।
ज्ञानी– (राजेश्वरी को ध्यान से देखकर) नहीं, रहने दो। पतिदेव के दर्शन कैसे पाऊं। मेरे मरने का हाल सुनकर उन्हें सीधी आंख से ताक भी सकते थे। (फिर अचेत हो जाती है।)
राजेश्वरी– (मन में) भगवन् अब यह शोक देखा नहीं जाता। कोई और स्त्री होती तो मेरे खून की प्यासी हो जाती। इस देवी के हृदय में कितनी दया है। मुझे इतनी नीची समझती है कि मेरे हाथ का पानी भी नहीं पीती, पर व्यवहार में कितनी भलमन्साहत है। मैं ऐसी दया की मूरत की धातिका हूं। मेरा क्या अंत होगा!
ज्ञानी– हाय, पुत्र– लालसा! तूने मेरा सर्वनाश कर दिया। राजेश्वरी, साधुओं का भेस देखकर धोखे में न आना। (आखें बंद कर लेती है।)
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