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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


राजेश्वरी– कभी किसी साधु ने इसे लूटकर रास्ता लिया होगा। वही सुध आ रही है। तुम तो चली, मेरे लिए कौन रास्ता है? वह डाकू ही हो गये है। अब तक सबलसिंह के भय से इधर न आते थे। अब वह मुझे कब जीता छोड़ेंगे? न जाने क्या-क्या दुर्गति करें? मैं जीना भी तो नहीं चाहती। मन, अब संसार का मायामोह छोड़ो। संसार में तुम्हारे लिए जगह नहीं है। हा! यही करना था तो पहले ही क्यों न किया? तीन प्राणियों की जान लेकर तब यह सूझी। कदाचित तब मुझे मौत से इतना डर न लगता। अब तो यमराज का ध्यान आते ही रोयें खड़े हो जाते हैं। पर यहां की दुर्दशा तो अच्छी। कोई हंसनेवाला तो न होगा। (रस्सी का फंदा बनाकर छत से लटका देती हैं।) बस, एक झटके, में काम तमाम हो जायेगा। इतनी सी जान के लिए आदमी कैसे-कैसे जतन करता है। (गले में फंदा डालती है) दिल कांपता है। जरा-सा फंदा खींच लूं और बस। दम घुटने लगेगा। तड़प-तड़प कर जान निकलेगी। (भय से कांप उठती है) मुझे इतना डर क्यों लगता है? मैं अपने को इतनी कायर न समझती थी। सास के एक ताने पर, पति की एक कड़ी बात पर स्त्रियां प्राण दे देती हैं। लड़किया अपने विवाह की चिंता से माता-पिता को बचाने के लिए प्राण दे देती हैं। स्त्रियां पति के साथ सती हो जाती थीं। डर क्या है? जो भगवान यहां है वहीं भगवान वहां है। मैंने कोई पाप नहीं किया है। एक आदमी मेरा धर्म बिगाड़ना चाहता था। मैं और किसी तरह उससे न बच सकती थी। मैंने कौशल से अपने धर्म की रक्षा की। यह पाप नहीं किया। मैं भोग-विलास के लोभ से यहां नहीं आयी! संसार चाहे मेरी कितनी ही निंदा करे, ईश्वर सब जानते हैं। उनसे डरने का कोई काम नहीं।

[फंदा खींच लेती है। तलवार लिए हुए हलधर का प्रवेश।]

हलधर– (आश्चर्य से) अरे! यहां तो इसने फांसी लगा रखी है।

[तलवार से तुरंत रस्सी काट देता है और राजेश्वरी को सम्भाल कर फर्श पर लिटा देता है।]

राजेश्वरी– (सचेत होकर) वही तलवार मेरी गर्दन पर क्यों नहीं चला देते?

हलधर– जो आप ही मर रही है उसे क्या मारूं?

राजेश्वरी– अभी इतनी दया है?

ज्ञानी– (होश में आकर) कौन कहता है कि इसने अपनी लाज बेच दी? यह आज भी उतनी ही पवित्र है जितनी अपने घर थी। इसने अपनी लाज बेचने के लिए इस मार्ग पर पग नहीं रखा, बल्कि अपनी लाज की रक्षा करने के लिए इसने मेरे कुल का सर्वनाश कर दिया। इसीलिए इसने यह कपट-भेष धारण किया। एक सम्पन्न पुरुष से बचने का इसके सिवा और कौन-सा उपाय था। तुम उस पर लांछन लगाकर बड़ा अन्याय कर रहे हो। उसने तुम्हारे कुल को कलंकित नहीं किया, बल्कि उसे उज्जवल कर दिया। ऐसी बिरली ही, कोई स्त्री ऐसी अवस्था में अपने व्रत पर अटल रह सकती थी। यह चाहती तो आजीवन सुख भोग करती, पर इसने धर्म को स्वाद-लिप्सा की भेंट नहीं चढ़ाया...आह! अब नहीं बोला जाता। बहुत-सी बातें मन में थी...सिर में चक्कर आ रहा है...स्वामी के दर्शन न कर सकी...(विवश हो जाती है)

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