नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
चेतन– इस समय न आता तो जीवनपर्यन्त पछताता। क्षमा– दान मांगने गया हूं।
राजेश्वरी– किससे?
चेतन– जो इस समय प्राण त्याग रही है।
ज्ञानी– (आंखें खोलकर) क्या वह आ गये? कोई अचल को मेरी गोद में भी नहीं रख देता?
चेतन– देवी, वह सब-के-सब आ रहे हैं। तुम जरा यह जड़ी मुंह में रख लो। भगवान् चाहेंगे तो सब कल्याण होगा।
ज्ञानी– कल्याण अब मेरे मरने में ही है।
चेतन– मेरे अपराध क्षमा करो।
[ज्ञानी के पैरों पर गिर पड़ता है।]
ज्ञानी– यह भेष त्याग दो। भगवान तुम पर दया करें
[उसके मुंह से खून निकलता है और प्राण निकल जाते हैं, अंतिम शब्द उसके मुंह से यही निकलता है, ‘अचल, तू अमर हो।]
राजेश्वरी– अंत हो गया। (रोती है) मन की अभिलाषा मन में ले गयी। पति और पुत्र से भेंट न हो सकी।
चेतन– देवी थी।
[सबलसिंह, कंचनसिंह, अचल, हलधर सब आते हैं।]
राजेश्वरी– स्वामीजी, कुछ अपनी सिद्धि दिखाइए। एक पल-भर के लिए सचेत हो जातीं। उनकी आत्मा शांत हो जाती।
चेतन– अब ब्रह्या भी आयें तो कुछ नहीं कर सकते।
[अचल रोता हुआ मां के शव से लिपट जाता है, सबल को ज्ञानी की तरफ देखने की भी हिम्मत नहीं पड़ती।]
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