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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


राजेश्वरी– आप लोग एक पल-भर पहले आ जाते तो इनकी मनोकामना पूरी हो जाती। आपकी रट लगाये हुए थीं। अंतिम शब्द जो उनके मुंह से निकला वह अचलसिंह का नाम था।

सबल– यह मेरी दुष्टता का दंड है। हलधर, अगर तुमने मेरी प्राणरक्षा न की होती तो मुझे यह शोक न सहना पड़ता। ईश्वर बड़े न्यायी है। मेरे कर्मो का इससे उचित दंड हो ही नहीं सकता था। मैं तुम्हारे घर का सर्वनाश करना चाहता था। विधाता ने मेरे घर का सर्वनाश कर दिया। आज मेरी आंखें खुल गयीं। मुझे विदित हो रहा है कि ऐश्वर्य और सम्पत्ति जिस पर मानव-समाज मिटा हुआ है, जिसकी आराधना और भक्ति में हम अपनी आत्माओं को भेंट कर देते हैं वास्तव में एक प्रचंड ज्वाला है, जो मनुष्य के हृदय को जलाकर राख कर देती है। यह समस्त पृथ्वी किन प्राणियों के पद-भार से दबी हुई है? वह कौन से लोग हैं। जो दुर्व्यसनों के पीछे नाना प्रकार के पापाचार कर रहे हैं? वेश्याओं की अट्टालिकाएं किन लोगों के दम से रौनक पर हैं? किनके घरों की महिलाएं रो-रोकर अपना जीवनक्षेप कर रही है? किनकी बंदूकों से जंगल के जानवरों की जान संकट में पड़ती है? किन लोगों की महत्वकांक्षाओं को पूरा करने के लिए आये दिन समरभूमि रक्तमयी होती रहती है? किनके सुखभोग के लिए गरीबों को आये दिन बेगारें भरनी पड़ती है? यह वही लोग हैं जिनके पास ऐश्वर्य है, सम्पत्ति है, प्रभुता है, बल है। उन्हीं के भार से पृथ्वी दबी हुई हैं, उन्हीं के नखों से संसार पीड़ित हो रहा है। सम्पत्ति ही पाप का मूल है, इसी से कुवासनाएं जागृत होती हैं, इसी से दुर्व्यसनों की सृष्टि होती है। गरीब आदमी अगर पाप करता है तो क्षुधा की तृप्ति के लिए। धनी पुरुष पाप करता है अपनी कुवृत्तियों और कुवासनाओँ की पूर्ति के लिए। मैं इसी व्याधि का मारा हुआ हूं। विधाता ने मुझे निर्धन बनाया होता, तो मैं भी अपनी जीविका के लिए पसीना बहाता होता, अपने बाल-बच्चों के उदार-पालन के लिए मजूरी करता होता तो मुझे यह दिन न देखना पड़ता, यों रक्त के आंसू न रोने पड़ते। धनीराज पुण्य भी करते हैं, दान भी करते हैं, दुःखी आदमियों पर दया भी करते हैं। देश में बड़ी-बड़ी धर्मशालाएं, सैंकड़ों पाठशालाएं, चिकित्सालय, तालाब, कुएं, उनकी कीर्ति के स्तम्भ रूप खड़े हैं, और उनके दान से सदाव्रत चलते हैं, अनाथों और विधवाओं का पालन होता है, साधुओं और अतिथियों का सत्कार होता है, कितने ही विशाल मंदिर सजे हुए हैं, विद्या की उन्नति हो रही है, लेकिन उनकी अपकीर्तियों के सामने उनकी सुकीर्तियां अंधेरी रात में जुगनू की चमक के समान हैं, जो अंधकार को और भी गहन बना देती हैं। पाप की कालिमा दान और दया से नहीं धुलती। नहीं, मेरा तो यह अनुभव है कि धनीराजा कभी पवित्र भावों से प्रेरित हो ही नहीं सकते। उनकी दानशीलता, उनकी भक्ति, उनकी उदारता, उनकी दीनवत्सलता वास्तव में उनके स्वार्थ को सिद्ध करने का साधन-मात्र है। इसी टठ्टी की आड़ में वह शिकार खेलते हैं, हाय! तुम लोग मन में सोचते होगे, यह रोने और विलाप करने का समय है, धन और सम्पदा की निंदा करने का नहीं। मगर मैं क्या करूं? आंसुओं की अपेक्षा इन जले हुए शब्दों से, इन फफोलों के लोचनों द्वारा नहीं हो सकता, उसके लिए ज्यादा चौड़े, ज्यादा स्थूल मार्ग की जरूरत है। हाय! इस देवी में अनेक गुण थे। मुझे याद नहीं आता कि इसने कभी एक अप्रिय शब्द भी मुझसे कहा हो, वह मेरे प्रेम में मग्न थी। मेरे प्रति उसके हृदय में कितनी श्रद्धा थी, कितनी शुभकामना। जब तक जी मेरे लिए जी और जब सत्पथ से हटते देखा तो यह शौक उसके लिए असह्य हो गया। हाय? मैं जानता कि वह ऐसा घातक संकल्प कर लेगी तो अपने आत्मपतन का वृत्तांत उससे न कहता! पर उसकी सहृयता और सहानुभूति के रसास्वादन से मैं अपने को रोक न सका। उसकी वह क्षमा, आत्मकृपा कभी न भूलगी जो इस वृत्तांत को सुनकर उसके उदास मुख पर झलकने लगी। शेष या क्रोध का लेश-मात्र भी चिन्ह न था। वह दयामूर्ति सदा के लिए मेरे हृदयगृह को उजाड़ कर अदृश्य हो गयी। नहीं, मैंने उसे पटककर चूर-चूर कर दिया। (रोता है) हा! उसकी याद अब मेरे दिल से कभी न निकलेगी।

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