नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
चौथा दृश्य
[स्थान– गुलाबी का मकान, समय– १० बजे तक]
गुलाबी– अब किसके बल पर कूदूं। पास जो जमा पूंजी थी वह निकल गयी। तीन-चार दिन के अन्दर क्या-से-क्या हो गया। बना बनाया घर उजड़ गया। जो राजा थे वह रंक हो गये। जिस देवी की बदौलत इतनी उम्र सुख से कटी वह संसार से उठ गयी। अब वहां पेट की रोटियों के सिवा और क्या रखा है। न उधर ही कुछ रहा, न इधर ही कुछ रहा। दोनों लोक से गयी। उस कलमुहें साधु का कहीं पता नहीं। न जाने कहां लोप हो गया। रंगा हुआ सियार था। मैं भी उसके छल में आ गयी। अब किसके बल पर कूदूं। बेटा, बहू यों ही बात न पूछते थे, अब तो बूंद पानी को तरसूंगी। अब किस दावे से कहूंगी, मेरे नहाने के लिए पानी रख दे, मेरी साड़ी छांट दे, मेरा बदन दाब दे। किस दावे पर धौंस जमाऊंगी। सब रुपये के मीत हैं। दोनों जानते थे, अम्मा के पास धन है। इसलिए डरते थे, मानते थे, जिस कल चाहती थी उठाती थी, जिस कल चाहती थी बैठाती थी। उस धूर्त्त साधु को पाऊं सैकड़ों गालियां सुनाऊं, मुंह नोच लूं। अब तो मेरी दशा उस बिल्ली की-सी है जिसके पंजे कट गये हों, उस बिच्छू की-सी जिसका डंक टूट गया हो, उस रानी की-सी जिसे राजा ने आंखों से गिरा दिया हो।
चम्पा– अम्मा, चलो, रसोई तैयार है।
गुलाबी– चलो बेटी, चलती हूं। आज मुझे ठाकुर साहब के घर से आने में देर हो गयी। तुम्हें बैठने का कष्ट हुआ।
चम्पा– (मन में) अम्मा आज इतने प्यार से क्यों बातें कर रही है, सीधी बात मुंह से निकलती ही न थी। (प्रकट) कुछ कष्ट नहीं हुआ, अम्मां, कौन अभी तो नौ बजे हैं।
गुलाबी– भृगुनाथ ने भोजन कर लिया है न?
चम्पा– (मन में) कल तक तो अम्मां पहले ही खा लेती थी, बेटे को पूछती तक न थी, आज क्यों इतनी खातिर कर रही है? (प्रकट) तुम चल कर देख लो, हम लोगों को तो सारी रात पड़ी है।
[गुलाबी रसोई में जाकर अपने हाथों से पानी निकालती है।]
चम्पा– तुम बैठो अम्मां, मैं पानी रख देती हूं।
गुलाबी– नहीं बेटी, सटका भरा हुआ है, तुम्हारी आस्तीन भीग जायेगी।
चम्पा– (पंखा झलने लगती है) नमक तो ज्यादा नहीं हो गया।
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