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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


गुलाबी– पंखा रख दो बेटी, आज गर्मी नहीं है। दाल में जरा नमक ज्यादा हो गया है। लाओ थोड़ा-सा पानी मिला कर खा लूं।

चम्पा– मैं बहुत अंदाज से छोड़ती हूं, मगर कभी-कभी कम-बेशी हो जाता है।

गुलाबी– बेटी, नमक का अंदाज बुढ़ापे तक ठीक नहीं होता, कभी-कभी धोखा हो ही जाता है। (भृगु आता है) आओ बेटा, खाना खा लो, देर हो रही है। क्या हुआ कंचनसिंह के यहां जवाब मिल गया?

भृगु– (मन में) आज अम्मा की बातों में कुछ प्यार भरा हुआ जान पड़ता है। (प्रकट) नहीं अम्मां, सच पूछों तो आज ही मेरी नौकरी लगी है। ठाकुर द्वारा बनवाने के लिए मसाला जुटाना मेरा काम तय हुआ है।

गुलाबी– बेटा, यह धरम का काम है, हाथ-पांव संभाल कर रहना।

भृगु– दस्तूरी तो छोड़ता नहीं, और कहीं हाथ की गुंजाइश नहीं। ठाकुर जी सीधे से दें दे तो उंगली क्यों टेढ़ी करनी पड़े।

[भोजन करने बैठता है।]

चम्पा– (भृगु से) कुछ और लेना हो तो ले लो, मैं जाती हूं अम्मां का बिछावन बिछाने।

गुलाबी– रहने दो बेटी, मैं आप बिछा लूंगी।

भृगु– (चम्पा से) यह आज दाल में नमक क्यों झोंक दिया? नित्य यही काम करती हो, फिर भी तमीज नहीं आती?

चम्पा– ज्यादा हो गया, हाथ ही तो है।

भृगु– शर्म नहीं आती, ऊपर से हेकड़ी करती हो।

गुलाबी– जाने दो बेटा, अंदाज न मिला होगा। मैं तो रसोई बनाते-बनाते बुढ्डी हो गयी, लेकिन कभी-कभी नमक घट-बढ़ जाता ही है।

भृगु– (मन में) अम्मां आज क्यों इतनी मुलायम हो गयी हैं। शायद ठाकुरों का पतन देखकर इनकी आंखों खुल गयी हैं। यह अगर इसी तरह प्यार से बातें करें तो हम लोग इनके चरण धो-धो कर पियें। (प्रकट) मैं तो किसी तरह खा लूंगा, पर तुम तो न खा सकोगी।

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