नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
गुलाबी– खा लिया बेटा, एक दिन जरा नमक ज्यादा ही सही। देखो, बेटी, खा-पीकर आराम से सो रहना, मेरा बदन दाबने मत आना। रात अधिक हो गयी है।
चम्पा– (मन में) आज तो ऐसा जी चाहता है कि इनके चरण धोकर पीऊं। इसी तरह रोज रहें तो फिर घर स्वर्ग हो जाये। (प्रकट) जरा बदन दबा देने से कौन बड़ी रात निकल जायेगी।
गुलाबी– (मन में) कितने प्रेम से बहू मेरी सेवा कर रही है, नहीं तो जरा-जरा-सी बात पर नाक-भौं सिकोड़ा करती थी। (प्रकट) जी चाहे तो थोड़ी देर के लिए आ जाना, तुम्हें प्रेमसागर सुनाऊंगी।
[चेतनदास का प्रवेश]
गुलाबी– (आश्चर्य से) महाराज, आप कहां चले गये थे? मैं दिन में कई बार आपकी कुटी पर गयी।
चेतनदास– आज मैं एक कार्यवश बाहर चला गया था। अब एक महान तीर्थ पर जाने का विचार है। अपना धन ले लो, गिन लेना, कुछ-न-कुछ अधिक ही होगा। मैं वह मंत्र भूल गया जिससे धन दूना हो जाता था।
गुलाबी– (चेतनदास के पैरों पर गिर कर) महाराज, बैठ जाइए, आपने यहां तक आने का कष्ट किया है, कुछ भोजन कर लीजिए। कृतार्थ हो जाऊंगी।
चेतन– नहीं माताजी, मुझे विलम्ब होगा। मुझे आज्ञा दो और मेरी यह बात ध्यान से सुनो। आगे किसी साधु-महात्मा को अपना धन दूना करने के लिए मत देना नहीं तो धोखा खाओगी। (चम्पा और भृगु आकर चेतनदास के चरण छूते हैं) माता, तेरे पुत्र और वधू बहुत सुशील दीखते हैं। परमात्मा इनकी रक्षा करें। तू भूल जा कि तेरे पास धन है। धन के बल से नहीं, प्रेम के बल से अपने घर में शासन कर।
[चेतनदास का प्रस्थान]
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