लोगों की राय

नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक)

संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

269 पाठक हैं

मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट

पांचवां दृश्य

[स्थान– स्वामी चेतनदास की कुटी, समय– रात, चेतनदास गंगा तट पर बैठे हैं।]

चेतनदास– (आप-ही-आप) मैं हत्यारा हूं, पापी हूं, धूर्त्त हूं। मैंने सरल प्राणियों को ठगने के लिए यह भेष बनाया है। मैंने इसीलिए योग की क्रियाएं सीखीं, इसीलिए हिप्नाटिज्म सीखा, मेरा लोग कितना सम्मान, कितनी प्रतिष्ठा करते हैं। पुरुष मुझसे धन मांगते हैं, स्त्रियां सन्तान मांगती हैं। मैं ईश्वर नहीं कि सबकी मुरादें पूरी कर सकूं तिस पर भी लोग मेरा पिंड नहीं छोड़ते। मैंने कितने घर तबाह किये, कितनी सती स्त्रियों को जाल में फंसाया, कितने निश्छल पुरुषों को चकमा दिया। यह सब स्वांग केवल सुख भोग के लिए, मुझ पर धिक्कार है! पहले मेरा जीवन कितना पवित्र था। मेरे आदर्श कितने ऊंचे थे। मैं संसार से विरक्त हो गया। पर स्वार्थी संसार ने मुझे खींच लिया। मेरी इतनी मान प्रतिष्ठा थी कि मैं पांखडी हो गया, नर से पिशाच हो गया। हां, मैं पिशाच हो गया। हां! मेरे कुकर्म मुझे चारों ओर से घेरे हुए हैं। उनके स्वरूप कितने भयंकर हैं। वह मुझे निगल जायेंगे। भगवान मुझे बचाओ! वह सब अपने मुंह खोले मेरी ओर लपके चले आते हैं। (आंख बंद कर लेते हैं) ज्ञानी! ईश्वर के लिए मुझे छोड़ दो। कितना विकराल स्वरूप है। तेरे मुख से ज्वाला निकल रही है। तेरी आंखों से आग की लपटें आ रही हैं। मैं जल जाऊंगा। भस्म हो जाऊंगा। तू कैसी सुन्दर थी। कैसी कोमलांगी थी! तेरा यह रौद्र रूप नहीं, तू वह सती नहीं, कमल-सी आँखें, वह पुष्प के से कपोल कहां है। नहीं यह मेरे अधमों का, मेरे दुष्कर्मों का मूर्तिमान स्वरूप है, मेरे दुष्कर्मों ने यह पैशाचिक रूप धारण किया है। यह मेरे ही पापों की ज्वाला है। क्या मैं अपने ही पापों की आग में जलूंगा? अपने ही बनाये हुए नर्क में पड़ूँगा? (आंखें बंद करके हाथों से हटाने की चेष्टा करके) नहीं, मैं ईश्वर की शपथ खाता हूं, अब कभी ऐसे कर्म न करूंगा। मुझे प्राण-दान दे। आह, कोई विनय नहीं सुनता। ईश्वर, मेरी क्या गति होगी। मैं इस पिशाचिनी के मुख का ग्रास बना जा रहा हूं। यह दया-शून्य हृदय-शून्य राक्षसी मुझे निगल जायेगी। भगवन्! कहां जाऊं, कहां भागूं? अरे रे...जला...

[दौड़कर नदी में कूद पड़ता है, और एक बार फिर ऊपर आकर नीचे डूब जाता है।]

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book