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नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक)

संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट

छठा दृश्य

[स्थान– मधुबन, समय-सावन का महीना, पूजा-उत्सव, बह्मभोज, राजेश्वरी और सलोनी गांव की अन्य स्त्रियों के साथ गहने-कपड़े पहने पूजा करने जा रही हैं।]

जय– जगदीश्वरी मात सरस्वती, सरनागत प्रतिपालनहारी।

चंद्र– जोत-सा बदन बिराजे, सीस मुकुट माला गलधारी– जय०

बोना– बोना बाम अंग में सोहे, सामगीत धुन मधुर पियारी– जय०

श्वेत बसन कमलासन सुंदर, संग सखी अरू हंस सवारी– जय०

सलोनी– (देवी की पूजा करके राजेश्वरी से) आ तेरे गले में माला डाल दूं, तेरे माथे पर भी टीका लगा दूं। तू भी हमारी देवी है। मैं जीती रही तो इस गांव में तेरा मंदिर बनवा कर छोड़ूंगी।

एक वृद्धा– साक्षात देवी है। इसके कारन हमारे भाग जाग गये, नहीं तो बेगार भरने और रो-रोकर दिन काटने के सिवा और क्या था।

सलोनी– (राजेश्वरी से) क्यों बेटी, तूने वह विद्या कहां पढ़ी थी। धन्य है। तेरे माई-बाप को, जिसके कोख से तूने जन्म लिया। मैं तुझे नित्य कोसती थी, कुल-कलंकिनी कहती थी। क्या जानती थी कि तू वहां सबके भाग संवार रही है।

राजेश्वरी– काकी, मैंने तो कुछ नहीं किया। जो कुछ हुआ ईश्वर की दया से हुआ। ठाकुर सबलसिंह देवता है। मैं उनसे अपने अपमान का बदला लेने गयी थी। मन में ठान लिया था कि उनके कुल का सर्वनाश करके छोड़ूँगी। अगर तुम्हारे भतीजे से उनकी जान न बचा ली होती तो आज कोई कुल में पानी देने वाला भी न रहता।

सलोनी– ईश्वर की लीला अपार है।

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