नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
|
269 पाठक हैं |
मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
राजेश्वरी– ज्ञानी देवी ने अपने प्राण देकर हम सभी को उबार लिया। इस शोक ने ठाकुर साहब को विरक्त कर दिया। कोई दूसरा समझता, बला से मर गयी, दूसरा ब्याह कर लेंगे, संसार में कौन लड़कियों की कमी है। लेकिन उनके मन में दया और धर्म की जोत चमक रही थी। ग्लानाग्नि उत्पन्न हुई कि मैंने इस कुमार्ग पर पैर न रखा होता तो यह देवी क्यों लज्जा और शोक से आत्म-हत्या करती। उनके मन ने कहा, तुम्हीं हत्यारे हो, तुम्हीं ने इसकी गर्दन पर छुरी चलायी है। इसी ग्लानि की दशा में उनको विदित हुआ कि इन सारी-विपत्तियों का मूल कारन मेरी संपत्ति है। यह न होती तो मेरा मन इतना चंचल न होता। ऐसी संपत्ति ही क्यों न त्याग दूं जिससे ऐसे-ऐसे अनर्थ होते हैं। मैं तो बखानूंगी दुधमुहें अचलसिंह को जो ठाकुर साहब के मुंह से बात निकलते ही सब कोठी, महल, बाग-बगीचा त्यागने पर तैयार हो गया। उनके छोटे भाई कंचनसिंह पहले ही से भगवद्-भजन में मग्न रहते थे। उनकी अभिलाषा एक ठाकुरद्वारा और एक धर्मशाला बनवाने की थी। राजभवन खाली हो गया। उसी को धर्मशाला बनायेंगे। घर में सब मिला कर कोई पचास-साठ हजार नकद रुपये थे। हवागाड़ी, फिटिन, घोड़े, लकड़ी के सामान, झाड़ फानूस, पलंग, मसहरी, कालीन, दरी इन सब चीजों के बेचने से पचीस हजार मिल गये, दस हजार के ज्ञानी देवी के गहने थे। वह भी बेच दिये गये। इस तरह सब जोड़ कर एक लाख रुपये ठाकुर द्वारा के लिए जमा हो गये। ठाकुरद्वारे के पास ही ज्ञानीदेवी के नाम का एक पक्का तालाब बनेगा। जब कोई लोभ ही न रह गया तो जमींदारी रख कर क्या करते। सब जमीन असामियों के नाम दर्ज कराके तीर्थयात्रा करने चले गये।
सलोनी– और अचलसिंह कहां गया? मैं तो उसे देख लेती तो छाती से लगा लेती। लड़का नहीं है, भगवान का अवतार है।
एक स्त्री– उसके चरण धो कर पीना चाहिए।
राजेश्वरी– गुरुकुल में पढ़ने चला गया। कोई नौकर भी साथ नहीं लिया। अब अकेले कंचनसिंह रह गये हैं। वह ठाकुर द्वारा बनवा रहे हैं।
सलोनी– अच्छा अब चलो, अभी दस मन की पूरियां बेलनी हैं।
[सब स्त्रियां गाती हुई लौटती हैं, लक्ष्मी की स्तुति करती हुई जाती हैं।]
फत्तू– चलो, चलो, कड़ाह की तैयारी करो। रात हुई जाती है। हलधर देखो, देर न हो, मैं जाता हूं मौलूद सरीफ़ का इंतजाम करने। फरस और सामियाना आ गया।
हलधर– तुम उधर थे, इधर थानेदार आये थे ठाकुर सबलसिंह की खोज में। कहते थे उनके नाम वारंट है। मैंने कह दिया उन्हें जाकर अब स्वर्गवास में तलास करो। मगर यह तो आने का बहाना था। असल में आये थे नजर लेने। मैंने कहा, नजर तो देते नहीं, हां हजारों रुपये खैरात हो रहें हैं, तुम्हारा जी चाहे तुम भी ले लो। मैंने तो समझा था कि यह सुनकर अपना-सा मुंह लेके चला जायेगा लेकिन इस महकमे वालों को हया नहीं होती, तुरंत हाथ फैला दिये। आखिर मैंने २५ रु. हाथ पर रख दिये।
|