नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
फत्तू– कुछ बोला तो नहीं?
हलधर– बोलता क्या, चुपके से चला गया।
फत्तू– गानेवाले आ गये?
हलधर– हां, चौपाल में बैठे हैं, बुलाता हूं।
मंगरू– (गांव की ओर से आकर) हलधर भैया, सबकी सलाह है कि तुम्हारा विमान सजा कर निकाला जाये, वहां से लौटने पर गाना बजाना हो।
हरदास– तुम्हारी बदौलत यह सब कुछ हुआ है, तुम्हारा कुछ तो महातम होना चाहिए।
हलधर– मैंने कुछ नहीं किया। सब भगवान् की इच्छा है। जरा गाने वालों को बुला लो!
[हरदास जाता है।]
मंगरू– भैया, अब तो जमींदार को मालगुजारी न देनी पड़ेगी?
हलधर– अब तो हम आप ही जमींदार हैं, मालगुजारी सरकार को देंगे।
मंगरू– तुमने कागद-पत्तर देख लिये हैं? रजिस्टरी हो गयी है?
हलधर– मेरे सामने ही हो गयी थी।
[हलधर किसी काम से चला जाता है, हरदास गानेवालों को बुला लाता है, वह सब साज मिलाने लगते हैं।]
मंगरू– (हरदास से) इसमें हलधर का कौन एहसान है? इनका बस होता तो सब अपने ही नाम चढ़वा लेते।
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