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नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक)

संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


हरदास– एहसान किसी का नहीं है। ईश्वर की जो इच्छा होती है वही होता है। लेकिन यह तो समझ रहे हैं कि मैं ही सब का ठाकुर हूं। जमीन पर पांव ही नहीं रखते। चंदे के रुपये ले लिये, लेकिन हम से कोई सलाह तक नहीं लेते। फत्तू और यह दोनों जो जी चाहता है करते हैं।

मंगरू– दोनों खासी रकम बना लेंगे। दो हजार चंदा उतरा है। खरचा वाजिबी-ही-वाजिबी हो रहा है।

[गाना होता है]

जगदीश सकल जगत का तू ही अधार है
भूमि, नीर, आगिन, पवन, सूरज, चंद, शैल, गगन,
तेरा किया चौदह भवन का पसार है। जगदीश ...
सुर, नर, पशु, जीव-जंतु, जल, थल चर, है अनंत,
तेरी रचना का नहीं अंत पार है। जगदीश ...
करुणानिधि, विश्वभरण, शरणागत तापहरण,
सत चित सुखरूप सदा निरविकार है। जगदीश ...
निरगुन सब गुन-विधान, निगमागत करत गान,
सेवक नमन करत, बार-बार है। जगदीश ...

 

समाप्त



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