उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
कृष्णचन्द्र ने कहा– अच्छी बात है, मुकदमा दायर कर दो। उमानाथ चले गए तो कृष्णचन्द्र ने आकाश की ओर देखकर कहा– प्रभो, अब उठा ले चलो, यह दुर्दशा नहीं सही जाती। आज उन्हें अपमान का वास्तविक अनुभव हुआ। उन्हें विदित हुआ कि सुमन को दंड़ देने से यह कलंक नहीं मिट सकता, जैसे सांप को मारने से उसका विष नहीं उतरता। उसकी हत्या करके उपहास के सिवाय और कुछ न होगा। पुलिस पकड़ेगी; महीनों इधर-उधर मारा-मारा फिरूंगा और इतनी दुर्गति के बाद फांसी पर चढ़ा दिया जाऊंगा। इससे तो कहीं उत्तम यही है कि डूब मरूं। इस दीपक को बुझा दूं, जिसके प्रकाश से ऐसे भयंकर दृश्य दिखाई देते हैं। हाय! यह अभागिनी सुमन बेचारी शान्ता को भी ले डूबी। उसके जीवन का सर्वनाश कर दिया। परमात्मन्! अब तुम्हीं इसके रक्षक हो। इस, असहाय बालिका को तुम्हारे सिवाय और कोई आश्रय नहीं है। केवल मुझे यहां से उठा ले चलो कि इन आंखों से उसकी दुर्दशा न देखूं।
थोड़ी देर में शान्ता कृष्णचन्द्र को भोजन करने के लिए बुलाने आई। विवाह के दिन से आज तक कृष्णचन्द्र ने उसे नहीं देखा था। इस समय उन्होंने उसकी ओर करुण नेत्रों से देखा। धुंधले दीपक के प्रकाश में उन्हें उसके मुख पर एक अलौकिक शोभा दिखाई दी! उसकी आंखें निर्मल आत्मिक ज्योति से चमक रही थीं। शोक और मालिन्य का आभास तक न था। जब से उसने सदन को देखा था, उसे अपने हृदय में एक स्वर्गीय विकास का अनुभव होता था। उसे वहां निर्मल भावों का एक स्रोत-सा बहता हुआ मालूम होता था। उसमें एक अद्भुत आत्मबल का उदय हो गया था। अपनी मामी से वह कभी सीधे मुंह बात न करती थी, पर आजकल घंटों बैठी उसके पैर दबाया करती। अपनी बहनों के प्रति अब उसे जरा भी ईर्ष्या न होती थी। वह अब हंसती हुई कुएं से पानी खींच लाती थी। चक्की चलाने में उसे एक पवित्र आनंद आता था। उसके जीवन में प्रेम का उद्भव हो गया था। सदन उसे न मिला, पर सदन से कहीं उत्तम वस्तु मिल गई। यह सदन का प्रेम था।
कृष्णचन्द्र शान्ता का प्रफुल्ल बदन देखकर विस्मित ही नहीं, भयभीत भी हो गए। उन्हें प्रतीत हुआ कि शोक की विषम वेदना आंसुओं द्वारा प्रकट नहीं हुई, उसने भीषण उन्माद का रूप धारण किया है। उन्हें ऐसा आभासित हुआ कि वह मुझे अपनी कठोर यातना का अपराधी समझ रही है। उन्होंने उसकी ओर कातर नेत्रों से देखकर कहा– शान्ता!
शान्ता ने जिज्ञासु भाव से उनकी ओर देखा।
कृष्णचन्द्र कुंठित स्वर में बोले– आज चार वर्ष हुए कि मेरे जीवन की नाव भंवर में पड़ी हुई है। इस विपत्तिकाल ने मेरा सब कुछ हर लिया, पर अब अपनी संतान की दुर्गति नहीं देखी जाती। मैं जानता हूं कि यह सब मेरे कुकर्म का फल है। अगर मैं पहले ही सावधान हो जाता, तो आज तुमलोगों की यह दुर्दशा न होती। मैं अब बहुत दिन न जीऊंगा। अगर कभी अभागिन सुमन से तुम्हारी भेंट हो जाए, तो कह देना कि मैंने उसे क्षमा किया। उसने जो कुछ किया, उसका दोष मुझ पर है। आज से दो दिन पहले तक मैं उसकी हत्या करने पर तुला हुआ था। पर ईश्वर ने मुझे इस पाप से बचा लिया। उससे कह देना कि वह अपने अभागे बाप और अपनी अभागिनी माता की आत्मा पर दया करे।
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