लोगों की राय

उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास)

सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

361 पाठक हैं

यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


लेकिन थोड़ी दूर चलकर वह फिर ठिठक गए और सोचने लगे, पानी में कूद पड़ना ऐसा क्या कठिन है, जहां भूमि से पांव उखड़े कि काम तमाम हुआ। यह स्मरण करके उनका हृदय एक बार कांप उठा। अकस्मात् यह बात उनके ध्यान में आई कि कहीं निकल क्यों न जाऊं? जब यहां रहूंगा ही नहीं, तो अपना अपमान कैसे सुनूंगा? लेकिन इस बात को उन्होंने मन में जमने न दिया। मोह की कपट-लीला उन्हें धोखा न दे सकी। यद्यपि वह धार्मिक प्रकृति के मनुष्य नहीं थे। और अदृश्य के एक अव्यक्त भय से उनका हृदय कांप रहा था, पर अपने संकल्प को दृढ़ रखने के लिए वह अपने मन को यह विश्वास दिला रहे थे कि परमात्मा बड़ा दयालु और करुणाशील है। आत्मा अपने को भूल गई थी। वह उस बालक के समान थी, जो अपनी किसी सखा के खिलौने तोड़ डालने के बाद अपने ही घर में जाते डरता है।

कृष्णचन्द्र इसी प्रकार आगे बढ़ते हुए कोई चार मील चले गए। ज्यों-ज्यों गंगातट निकट आता जाता था, त्यों-त्यों उनके हृदय की गति बढ़ती जाती थी। भय से चित्त अस्थिर हुआ जाता था। लेकिन वह इस आंतरिक निर्बलता को कुछ तो अपने वेग और कुछ तिरस्कार से हटाने की चेष्टा कर रहे थे। हा! मैं कितना निर्लज्ज, आत्मशून्य हूं। इतनी दुर्दशा होने पर भी मरने से डरता हूं। अकस्मात् उन्हें किसी के गाने की ध्वनि सुनाई दी। ज्यों-ज्यों वे आगे बढ़ते थे, त्यों-त्यों वह ध्वनि निकट आती थी। गाने वाला उन्हीं की ओर चला आ रहा था। उस निस्तब्ध रात्रि में कृष्णचन्द्र को वह गाना अत्यंत मधुर मालूम हुआ। कान लगाकर सुनने लगे–

हरि सों ठाकुर और न जन को।
जेहि-जेहि विधि सेवक सुख पावै तेहि विधि राखत तिन को।।
हरि सों ठाकुर और न जन को।
भूखे को भोजन जु उदर को तृषा तोय पट तन को।।
लाग्यो फिरत सुरभि ज्यों सुत संग उचित गमन गृह वन को।।
हरि सों ठाकुर और न जन को।।


यद्यपि गान माधुर्य-रसपूर्ण न था, तथापि वह शास्त्रोक्त था, इसलिए कृष्णचन्द्र को उसमें बहुत आनंद प्राप्त हुआ था। उन्हें इस शास्त्र का अच्छा ज्ञान था। इसने उनके विदग्ध हृदय को शांति प्रदान कर दी।

गाना बंद हो गया और एक क्षण के बाद कृष्णचन्द्र ने एक दीर्घकाल जटाधारी साधु को अपनी ओर आते देखा। साधु ने उनका नाम और स्थान पूछा। उसके भाव से ऐसा ज्ञात हुआ कि वह उनसे परिचित है। कृष्णचन्द्र आगे बढ़ना चाहते थे कि उसने पूछा– इस समय आप इधर कहां जा रहे हैं?

कृष्णचन्द्र– कुछ ऐसा ही काम आ पड़ा है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book