उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
साधु– आधी रात को आपका गंगातट पर क्या काम हो सकता है?
कृष्णचन्द्र ने रुष्ट होकर उत्तर दिया– आप तो आत्मज्ञानी हैं। आपको स्वयं जानना चाहिए।
साधु– आत्मज्ञानी तो मैं नहीं हूं, केवल भिक्षुक हूं। इस समय मैं आपको उधर न जाने दूंगा।
कृष्णचन्द्र– आप अपनी राह जाइए। मेरे काम में विघ्न डालने का आपको क्या अधिकार है?
साधु– अधिकार न होता तो मैं आपको रोकता ही नहीं। आप मुझसे परिचित नहीं हैं, पर मैं आपका धर्मपुत्र हूं, मेरा नाम गजाधर पांडे है!
कृष्णचन्द्र– ओहो! आप गजाधर पांडे है। आपने यह भेष कब से धारण कर लिया? आपसे मिलने की मेरी बहुत इच्छा थी। मैं आपसे कुछ पूछना चाहता था।
गजाधर– मेरा स्थान गंगातट पर एक वृक्ष के नीचे है। चलिए, वहां थोड़ी देर विश्राम कीजिए। मैं सारा वृत्तांत आपसे कह दूंगा।
रास्ते में दोनों मनुष्यों में कुछ बातचीत न हुई। थोड़ी देर में वे उस वृक्ष के नीचे पहुंच गए, जहां एक मोटा– सा कुंदा जल रहा था। भूमि पर पुआल बिछा हुआ था और एक मृगचर्म, एक कमंडल और पुस्तकों का एक बस्ता उस पर रखा हुआ था।
कृष्णचन्द्र आग तापते हुए बोले– आप साधु हो गए हैं, सत्य ही कहिएगा, सुमन की यह कुप्रवृत्ति कैसे हो गई?
गजाधर अग्नि के प्रकाश में कृष्णचन्द्र के मुख की ओर मर्मभेदी दृष्टि से देख रहे थे। उन्हें उनके मुख पर उनके हृदय के समस्त भाव अंकित देख पड़ते थे। वह अब गजाधर न थे। सत्संग और विरक्ति ने उनके ज्ञान को विकसित कर दिया था। वह उस घटना पर जितना विचार करते थे, उतना ही उन्हें पश्चात्ताप होता था। इस प्रकार अनुतप्त होकर उनका हृदय सुमन की ओर से बहुत उदार हो गया था। कभी-कभी उनका जी चाहता था कि चलकर उसके चरणों पर सिर रख दूं।
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