उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
शान्ता चुप हो गई। संसार चाहे जो कुछ समझता हो, वह अपने को विवाहिता ही समझती थी। विवाहिता कन्या का दूसरे घर में विवाह हो, यह उसे अत्यंत लज्जाजनक, असहृय प्रतीत होता था। बारात आने के एक मास पहले से वह सदन के रूप-गुण की प्रशंसा सुन-सुनकर उसके हाथों बिक चुकी थी। उसने अपने द्वार पर, द्वाराचार के समय, सदन को अपने पुरुष की भांति देखा है, इस प्रकार नहीं, मानों वह कोई अपरिचित मनुष्य है। अब किसी दूसरे पुरुष की कल्पना उसके सतीत्व पर कुठार के समान लगती थी। वह इतने दिनों तक सदन को अपना पति समझने के बाद उसे हृदय से निकाल न सकती थी, चाहे वह उसकी बात पूछे या न पूछे, चाहे उसे अंगीकार करे या न करे। अगर द्वाराचार के बाद ही सदन उसके सामने आता, तो वह उसी भांति मिलती, मानों वह उसका पति है। विवाह, भांवर या सेंदूर-बंधन नहीं, केवल मन का भाव है।
शान्ता को अभी तक यह आशा थी कि कभी-न-कभी मैं पति के घर अवश्य जाऊंगी, कभी-न-कभी स्वामी के चरणों में अवश्य ही आश्रय पाऊंगी, पर आज अपने विवाह की-या पुनर्विवाह की– बात सुनकर उसका अनुरक्त हृदय कांप उठा। उसने निःसंकोच होकर जाह्नवी से विनय की कि मुझे पति के घर भेज दो। यहीं तक उसका सामर्थ्य था। इसके सिवा वह और क्या करती? पर जाह्नवी की निर्दयतापूर्ण उपेक्षा देखकर उसका धैर्य हाथ से जाता रहा। मन की चंचलता बढ़ने लगी। रात को जब सब सो गए, तो उसने पद्मसिंह को एक विनय-पत्र लिखना शुरू किया। यह उसका अंतिम साधन था। इसके निष्फल होने पर उसने कर्तव्य का निश्चय कर लिया था।
पत्र शीघ्र समाप्त हो गया। उसने पहले ही से कल्पना में उसकी रचना कर ली थी। केवल लिखना बाकी था।
‘पूज्य धर्मपिता के चरण-कमलों में सेविका शान्ता का प्रणाम स्वीकार हो। मैं बहुत दुख में हूं। मुझ पर दया करके अपने चरणों में आश्रय दीजिए। पिताजी गंगा में डूब गए। यहां आप लोगों पर मुकदमा चलाने का प्रस्ताव हो रहा है। मेरे पुनर्विवाह की बातचीत हो रही है। शीघ्र सुधि लीजिए। एक सप्ताह तक आपकी राह देखूंगी। उसके बाद फिर आप इस अबला की पुकार न सुनेगें।’
इतने में जाह्नवी की आंखें खुली। मच्छरों ने सारे शरीर में कांटे चुभो दिये थे। खुजलाते हुए बोली– शान्ता! यह क्या कर रही है?
शान्ता ने निर्भय होकर कहा– पत्र लिख रही हूं।
‘किसको?’
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