उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
‘अपने श्वसुर को।’
‘चुल्लू-भर पानी में डूब नहीं मरती?’
‘सातवें दिन मरूंगी।’
जाह्नवी ने कुछ उत्तर न दिया, फिर सो गई। शान्ता ने लिफाफे पर पता लिखा और उसे अपने कपड़ों की गठरी में रखकर लेट रही।
४०
पद्मसिंह का पहला विवाह उस समय हुआ था, जब वह कॉलेज में पढ़ते थे, और एम. ए. पास हुए, तो वह एक पुत्र के पिता थे। पर बालिका वधू शिशु-पालन का मर्म न जानती थी। बालक जन्म के समय तो हृष्ट-पुष्ट था, पर पीछे धीरे-धीरे क्षीण होने लगा था। यहां तक छठे महीने माता और शिशु दोनों ही चल बसे। पद्मसिंह ने निश्चय किया, अब विवाह न करूंगा। मगर वकालत पास करने पर उन्हें फिर वैवाहिक बंधन में फंसना पड़ा। सुभद्रा रानी वधू बनकर आई। इसे आज सात वर्ष हो गए।
पहले दो-तीन साल तक तो पद्मसिंह को संतान का ध्यान ही नहीं हुआ। यदि भामा इसकी चर्चा करती, तो वह टाल जाते। कहते, मुझे संतान की इच्छा नहीं। मुझसे यह बोझ न संभलेगा। अभी तक संतान की आशा थी, इसीलिए अधीर न होते थे।
लेकिन जब चौथा साल भी यों ही कट गया, तो उन्हें कुछ निराशा होने लगी। मन में चिंता हुई क्या सचमुच मैं निःसंतान ही रहूंगा। ज्यों-ज्यों दिन गुजरते थे, यह चिंता बढ़ती जाती थी। अब उन्हें अपना जीवन कुछ शून्य-सा मालूम होने लगा। सुभद्रा से वह प्रेम न रहा, सुभद्रा ने इसे ताड़ लिया। उसे दुख तो हुआ, पर इसे अपने कर्मों का फल समझकर उसने संतोष किया।
पद्मसिंह अपने को बहुत समझाते कि तुम्हें संतान लेकर क्या करना है? जन्म से लेकर पच्चीस वर्ष की आयु तक उसे जिलाओ, खिलाओ, पढ़ाओ तिस पर भी यह शंका लगी ही रहती है कि वह किसी ढंग की होगी भी या नहीं। लड़का मर गया, तो उसके नाम को लेकर रोओ। जो कहीं हम मर गए, तो उसकी जिंदगी नष्ट हो गई। हमें यह सुख नहीं चाहिए। लेकिन इन विचारों से मन को शांति न होती। वह सुभद्रा से अपने भावों को छिपाने की चेष्टा करते थे और उसे निर्दोष समझकर उसके साथ पूर्ववत् प्रेम करना चाहते थे, पर जब हृदय पर नैराश्य का अंधकार छाया हो, तो मुख पर प्रकाश कहां से आए? साधारण बुद्धि का मनुष्य भी कह सकता था कि स्त्री-पुरुष के बीच में कुछ-न-कुछ अंतर है। कुशल यही थी कि सुभद्रा की ओर से पतिप्रेम और सेवा में कुछ कमी न थी, दिनोंदिन उसमें और कोमलता आती जाती थी, वह अपने प्रेमानुराग से संतान-लालसा को दबाना चाहती थी, पर इस दुस्तर कार्य में वह उस वैद्य से अधिक सफल न होती थी, जो रोगी को गीतों से अच्छा करना चाहता हो। गृहस्थी की छोटी-छोटी बातों पर, जो अनुचित होने पर भी पति को ग्राह्य हो जाया करती हैं, उसे सदैव दबना पड़ता था और जब से सदन यहां रहने लगा था, कितनी ही बार उसके पीछे तिरस्कृत होना पड़ा। स्त्री अपने पति के बर्छों का घाव सह सकती है, पर किसी दूसरे के पीछे उसकी तीव्र दृष्टि भी उसे असह्य हो जाती है। सदन सुभद्रा की आंखों में कांटे की तरह गड़ता था। अंत को कल वह उबल पड़ी। गर्मी सख्त थी। मिसिराइन किसी कारण से न आई थी, सुभद्रा को भोजन बनाना पड़ा। उसने पद्मसिंह के लिए फुल्कियां पकाई। लेकिन गर्मी से व्याकुल थी, इसलिए सदन के लिए मोटी-मोटी रोटियां बना दी। पद्मसिंह भोजन करने बैठे, सदन की थाली में रोटियां देखीं, तो मारे क्रोध के अपनी फुल्कियां उसकी थाली में रख दीं। और उसकी रोटियां अपनी थाली में डाल लीं। सुभद्रा ने जलकर कुछ कटु वाक्य कहे, पद्मसिंह ने वैसा ही उत्तर दिया। फिर प्रत्युत्तर की नौबत आई। यहां तक कि वह झल्लाकर चौके से उठ गए। सुभद्रा ने मनावन नहीं किया। उसने रसोई उठा दी और जाकर लेट रही, पर अभी तक दो में से एक का भी क्रोध शांत नहीं हुआ। मिसिराइन ने आज खाना बनाया, पर न पद्मसिंह ने खाया, न सुभद्रा ने। सदन बारी-बारी से दोनों की खुशामद कर रहा था, पर एक तरफ से यह उत्तर पाता, अभी भूख नहीं है और दूसरी तरफ से जवाब मिलता खा लूंगी, यह थोड़े ही छूटेगा। यही छूट जाता, तो काहे किसी की धौंस सहनी पड़ती। आश्चर्य था कि सदन से सुभद्रा हंस-हंसकर बातें करती थी और वही इस कलह का मूल कारण था। मृगा खूब जानता है कि टट्टी की आड़ से आने वाला तीर वास्तव में शिकारी की मांस-तृष्णा या मृगया प्रेम है।
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