उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
तीसरा पहर हो गया था, पद्मसिंह सोकर उठे थे और जम्हाइयां ले रहे थे। उनका हृदय सुभद्रा के प्रति अनुदार, अप्रिय, दग्धकारी भावों से मलिन हो रहा था। सुभद्रा के अतिरिक्त यह प्राणि-मात्र से सहानुभूति करने को तैयार बैठे थे। इसी समय डाकिए ने एक बैरंग चिट्ठी लाकर उन्हें दी। उन्होंने डाकिए को इस अप्रसन्नता की दृष्टि से देखा, मानों बैरंग चिट्ठी लाकर उसने कोई अपराध किया है। पहले तो उन्हें इच्छा हुई कि इसे लौटा दें, किसी दरिद्र मुवक्किल ने इसमें अपनी विपत्ति गाई होगी, लेकिन कुछ सोचकर चिट्ठी ले ली और खोलकर पढ़ने लगे। यह शान्ता का पत्र था। उसे एक बार पढ़कर मेज पर रख दिया। एक क्षण के बाद फिर उठाकर पढ़ा और तब कमरे में टहलने लगे। इस समय यदि मदनसिंह वहां होते, तो वह पत्र उन्हें दिखाते और कहते, यह आपके कुल-मर्यादाभिमान का– आपके लोक-निंदा, भय का फल है। आपने एक मनुष्य का प्राणाघात किया, उसकी हत्या आपके सिर पड़ेगी। पद्यसिंह को मुकदमें की बात पढ़कर एक प्रकार का आनंद-सा हुआ। बहुत अच्छा हो कि यह मुकदमा दायर हो और उनकी कुलीनता का गर्व धूल में मिल जाए। उमानाथ की डिग्री अवश्य होगी और तब भाई साहब को ज्ञात होता कि कुलीनता कितनी मंहगी वस्तु है। हाय! उस अबला कन्या के हृदय पर क्या बीत रही होगी? पद्मसिंह ने फिर उस पत्र को पढ़ा। उन्हें उसमें अपने प्रति श्रद्धा का एक स्रोत-सा बहता हुआ मालूम हुआ। इसने उनकी न्यायप्रियता को उत्तेजित-सा कर दिया। ‘धर्मपिता’ शब्द ने उन्हें वशीभूत कर दिया। उसने उनके हृदय में वात्सल्य के तार का स्वर कंपित कर दिया। वह कपड़े पहनकर विट्ठलदास के मकान पर जा पहुंचे, वहां मालूम हुआ कि वे कुंवर अनिरुद्धसिंह के यहां गए हुए हैं। तुरंत बाइसिकल उधर फेर दी। वह शान्ता के विषय में इसी समय कुछ-न-कुछ निश्चय कर लेना चाहते थे। उन्हें भय था कि विलंब होने से यह जोश ठंडा न पड़ जाए।
कुंवर साहब के यहां ग्वालियर से एक जलतरंग बजाने वाला आया हुआ था। उसी का गाना सुनने के लिए आज उन्होंने मित्रों को निमंत्रित किया था। पद्मसिंह वहां पहुंचे तो विट्ठलदास और प्रोफेसर रमेशदत्त में उच्च स्वर में विवाद हो रहा था और कुंवर साहब, पंडित प्रभाकर राव तथा सैयद तेगअली बैठे हुए इस लड़ाई का तमाशा देख रहे थे।
शर्माजी को देखते ही कुंवर साहब ने उनका स्वागत किया। बोले– आइए, आइए, देखिए यहां घोर संग्राम हो रहा है। किसी तरह इन्हें अलग कीजिए, नहीं तो ये लड़ते-लड़ते मर जाएंगे।
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