उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
इतने में प्रोफेसर रमेशदत्त बोले– थियासोफिस्ट होना कोई गाली नहीं है। मैं थियासोफिस्त हूं और इसे सारा शहर जानता है। हमारे ही समाज के उद्योग का फल है कि आज अमेरिका, जर्मनी, रूस इत्यादि देशों में आपको राम और कृष्ण के भक्त और गीता, उपनिषद् आदि सद्ग्रंथों के प्रेमी दिखाई देने लगे हैं। हमारे समाज ने हिन्दू जाति का गौरव बढ़ा दिया है, उसके महत्त्व को प्रसारित कर दिया है और उसे उस उच्चासन पर बिठा दिया है, जिसे वह अपनी अकर्मण्यता के कारण कई शताब्दियों से छोड़ बैठी थी, यह हमारी परम कृतघ्नता होगी, अगर हम उन लोगों का यश न स्वीकार करें, जिन्होंने अपने दीपक से हमारे अंधकार को दूर करके हमें वे रत्न दिखा दिए हैं, जिन्हें देखने का हममें सामर्थ्य न था। यह दीपक ब्लाबेट्स्की का हो, या आल्क्ट का या किसी अन्य पुरुष का, हमें इससे कोई प्रयोजन नहीं। जिसने हमारा अंधकार मिटाया हो उसका अनुगृहीत होना हमारा कर्त्तव्य है। अगर आप इसे गुलामी कहते हैं, तो यह आपका अन्याय है।
विट्ठलदास ने इस कथन को ऐसे उपेक्ष्य भाव से सुना, मानो वह कोई निरर्थक बकवाद है और बोले– इसी का नाम गुलामी है, बल्कि गुलाम तो एक प्रकार से स्वतंत्र होता है, उसका अधिकार शरीर पर होता है, आत्मा पर नहीं। आप लोगों ने तो अपनी आत्मा को ही बेच दिया है। आपकी अंग्रेजी शिक्षा ने आपको ऐसा पद्दलित किया है कि जब तक यूरोप का कोई विद्वान किसी विषय के गुण-दोष प्रकट न करे, तब तक आप उस विषय की ओर से उदासीन रहते हैं। आप उपनिषदों का आदर इसलिए नहीं करते कि वह स्वयं आदरणीय है, बल्कि इसलिए करते हैं कि ब्लाबेट्स्की और मैक्समूलर ने उनका आदर किया है आपमें अपनी बुद्धि से काम लेने की शक्ति का लोप हो गया है। अभी तक आप तांत्रिक विद्या की बात भी न पूछते थे। अब जो यूरोपीय विद्वानों ने उसका रहस्य खोलना शुरू किया, तो आपको अब तंत्रों में गुण दिखाई देते हैं। यह मानसिक गुलामी उस भौतिक गुलामी से कहीं गई-गुजरी है। आप उपनिषदों को अंग्रेजी में पढ़ते हैं, गीता को जर्मन में। अर्जुन को अर्जुना, कृष्ण को कृशना कहकर अपने स्वभाषा-ज्ञान का परिचय देते हैं। आपने इसी मानसिक दासत्व के कारण उस क्षेत्र में अपनी पराजय स्वीकार कर ली, जहां हम अपने पूर्वजों की प्रतिभा और प्रचंडता से चिरकाल तक अपनी विजय-पताका फहरा सकते थे।
रमेशदत्त इसका कुछ उत्तर देना ही चाहते थे कि कुंवर साहब बोले उठे– मित्रो! अब मुझसे बिना बोले नहीं रहा जाता। लाला साहब, आप अपने इस ‘गुलामी’ शब्द को वापस लीजिए।
विट्ठलदास– क्यों वापस लूं?
कुंवरसाहब– आपको इसके प्रयोग करने का अधिकार नहीं है।
विट्ठलदास– मैं आपका आशय नहीं समझा।
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