उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
कुंवरसाहब– मेरा आशय यह है कि हममें कोई भी दूसरों को गुलाम कहने का अधिकार नहीं रखता! अंधों के नगर में कौन किसको अंधा कहेगा? हम सब-के-सब राजा हों या रंक, गुलाम हैं। हम अगर अपढ़, निर्धन, गंवार हैं, तो थोड़े गुलाम हैं। हम अपने राम का नाम लेते हैं, अपनी गाय पालते हैं और अपनी गंगा में नहाते हैं, और हम यदि विद्वान, उन्नत, ऐश्वर्यवान हैं, तो बहुत गुलाम हैं, जो विदेशी भाषा बोलते हैं, कुत्ते पालते हैं और अपने देशवासियों को नीच समझते हैं। सारी जाति इन्हीं दो भागों में विभक्त है। इसलिए कोई किसी को गुलाम नहीं कह सकता। गुलामी के मानसिक, आत्मिक, शारीरिक आदि विभाग करना भ्रांतिकारक है। गुलामी केवल आत्मिक होती है, और दशाएं इसी के अंतर्गत हैं। मोटर, बंगले, पोलो और प्यानों यह एक बेड़ी के तुल्य हैं, जिसने इन बेड़ियों को नहीं पहना, उसी को सच्ची स्वाधीनता का आनंद प्राप्त हो सकता है, और आप जानते हैं, वे कौन लोग हैं? वे हमारे दीन कृषक है, जो अपने पसीने की कमाई खाते हैं, अपने जातीय भेष, भाषा और भाव का आदर करते हैं और किसी के सामने सिर नहीं झुकाते है।
प्रभाकर राव ने मुस्कराकर कहा– आपको कृषक बन जाना चाहिए।
कुंवरसाहब– तो अपने पूर्वजन्म के कुकर्मों को कैसे भोगूंगा? बड़े दिन में मेवे की डालियां कैसे लगाऊंगा? सलामी के लिए खानसामा की खुशामद कैसे करूंगा? उपाधि के लिए नैनीताल के चक्कर कैसे लगाऊंगा? डिनर पार्टी देकर लेडियों के कुत्तों को कैसे गोद में उठाऊंगा? देवताओं को प्रसन्न और संतुष्ट करने के लिए देशहित के कार्यों में असम्मति कैसे दूंगा? यह सब मानव-अधःपतन की अंतिम अवस्थाएं हैं। उन्हें भोग किए बिना मेरी मुक्ति नहीं हो सकती। (पद्मसिंह से) कहिए शर्माजी, आपका प्रस्ताव बोर्ड में कब आएगा? आप आजकल कुछ उत्साहहीन से दिख पड़ते हैं। क्या इस प्रस्ताव की भी वही गति होगी, जो हमारे अन्य सार्वजनिक कार्यों की हुआ करती है?
इधर कुछ दिनों से वास्तव में पद्मसिंह का उत्साह कुछ क्षीण हो गया था। ज्यों-ज्यों उसके पास होने की आशा बढ़ती थी, उनका अविश्वास भी बढ़ता जाता था। विद्यार्थी की परीक्षा जब तक नहीं होती, वह उसी की तैयारी में लगा रहता है, लेकिन परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाने के बाद भावी जीवन-संग्राम की चिंता उसे हतोत्साह कर दिया करती है। उसे अनुभव होता है कि जिन साधनों से अब तक मैंने सफलता प्राप्त की है, वह इस नए, विस्तृत, अगम्य क्षेत्र में अनुपयुक्त हैं। वही दशा इस समय शर्माजी की थी। अपना प्रस्ताव उन्हें कुछ व्यर्थ-सा मालूम होता था। व्यर्थ ही नहीं, कभी-कभी उन्हें उससे लाभ के बदले हानि होने का भय होता था। लेकिन वह अपने संदेहात्मक विचारों को प्रकट करने का साहस न कर सकते थे, कुंवर साहब की ओर विश्वासपूर्ण दृष्टि से देखकर बोले, जी नहीं, ऐसा तो नहीं है। हां, आजकल फुर्सत न रहने से वह काम जरा धीमा पड़ गया है।
कुंवर साहब– उसके पास होने में तो अब कोई बाधा नहीं है?
पद्मसिंह ने तेगअली की तरफ देखकर कहा– मुसलमान मेंबरों का ही भरोसा है।
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