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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


अबुलवफा और उसके मित्रगण ऐसे प्रसन्न थे, मानों उन्हीं की जीत हुई। उनका यों पुलकित होना प्रभाकर राव और उसके मित्रों के हृदय में कांटे की तरह गड़ता था।

प्रस्ताव के दूसरे भाग पर सम्मति ली गई। प्रभाकर राव और उसके मित्रों ने इस बार उसका विरोध किया। वह पद्मसिंह को विश्वासघात का दंड देना चाहते थे। यह प्रस्ताव अस्वीकृत हो गया। अबुलवफा और उनके मित्र बगलें बजाने लगे।

अब प्रस्ताव के तीसरे भाग की बारी आई। कुंवर अनिरुद्धसिंह ने उसका समर्थन किया। हकीम शोहरतखां, सैयद शफकतअली, शरीफ हसन और शाकिरबेग ने भी उसका अनुमोदन किया। लेकिन प्रभाकर राव और उनके मित्रों ने उसका भी विरोध किया। तरमीम के पास हो जाने के बाद उन्हें इस संबंध में अन्य सभी उद्योग निष्फल मालूम होते थे। वह उन लोगों में थे, जो या तो सब लेंगे या कुछ न लेंगे। प्रस्ताव अस्वीकृत हो गया।

कुछ रात गए सभा समाप्त हुई। जिन्हें हार की शंका थी, वह हंसते हुए निकले, जिन्हें जीत का निश्चय था, उनके चेहरों पर उदासी छाई हुई थी।

चलते समय कुंवर साहब ने मिस्टर रुस्तम भाई से कहा– यह आप लोगों ने क्या कर दिया?

रुस्तम भाई ने व्यंग्य भाव से उत्तर दिया– जो आपने किया, वही हमने किया। आपने घड़े में छेद कर दिया, हमने उसे पलट दिया। परिणाम दोनों का एक ही है।

सब लोग चले गए। अंधेरा हो गया। चौकीदार और माली भी फाटक बंद करके चल दिए, लेकिन पद्मसिंह वहीं घास पर निरुत्साह और चिंता की मूर्ति बने हुए बैठे थे।

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पद्मसिंह की आत्मा किसी भांति इस तरमीम के स्वीकार करने में अपनी भूल स्वीकार न करती थी। उन्हें कदापि यह आशा न थी कि उनके मित्रगण एक गौण बात पर उनका इतना विरोध करेंगे। उन्हें प्रस्ताव के एक अंश के अस्वीकृत हो जाने का खेद न था कि इसका दोष उनके सिर मढ़ा जाता था, हालांकि उन्हें यह संपूर्णतः अपने सहकारियों की असहिष्णुता और अदूदर्शिता प्रतीत होती थी। इस तरमीम को वह गौण ही समझते थे। इसके दुरुपयोग की जो शंकाएं की गई थीं, उन पर पद्मसिंह को विश्वास न था। वह विश्वास इस प्रस्ताव की सारी जिम्मेदारी उन्हीं के सिर डाल देता था। उन्हें अब यह निश्चय होता जाता था कि वर्तमान सामाजिक दशा के होते हुए इस प्रस्ताव से जो आशाएं की गई थीं, उनके पूरे होने की संभावना नहीं है। वह कभी-कभी पछताते कि मैंने व्यर्थ ही यह झगड़ा अपने सिर लिया। उन्हें आश्चर्य होता था कि मैं कैसे इस कांटेदार झाड़ी में उलझा और यदि इस भावी सफलता का भार इस तरमीम से सिर जा पड़ता तो वह एक बड़ी भारी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते, पर यह उन्हें दुराशा-मात्र प्रतीत होती थी। अब सारी बदनामी उन्हीं पर आएगी, विरोधी दल उनकी हंसी उड़ाएगा, उनकी उद्दंडता पर टिप्पणियां करेगा और यह सारी निंदा उन्हें अकेले सहनी पड़ेगी। कोई उनका मित्र नहीं, कोई उन्हें तसल्ली देने वाला नहीं। विट्ठलदास से आशा थी कि वह उनके साथ न्याय करेंगे, उनके रूठे हुए मित्रों को मना लाएंगे, लेकिन विट्ठलदास ने उल्टे उन्हीं को अपराधी ठहराया। वह बोले– आपने इस तरमीम को स्वीकार करके सारा गुड़ गोबर कर दिया, बरसों की मेहनत पर पानी फेर दिया। केवल कुंवर अनिरुद्धसिंह वह मनुष्य थे, जो पद्मसिंह के व्यथित हृदय को ढाढस देते थे और उनसे सहानुभूति रखते थे।

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