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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


यह कहकर सुभद्रा वह लेख पढ़ने लगी और पांच मिनट में उसने उसे आद्योपांत पढ़ डाला।

पद्मसिंह– कैसा लेख है?

सुभद्रा– यह लेख थोड़े ही है, यह तो खुली हुई गालियां है। मैं समझती थी कि गालियों की लड़ाई स्त्रियों में ही होती है, लेकिन देखती हूं, पुरुष तो हम लोगों से भी बढ़े हुए हैं। ये विद्वान भी होंगे?

पद्मसिंह– हां, विद्वान क्यों नहीं है, दुनिया-भर की किताबें चाट बैठे हैं।

सुभद्रा– और उस पर यह हाल!

पद्मसिंह– मैं इसका उत्तर लिख रहा हूं। ऐसी खबर लूंगा कि वह भी याद करें कि किसी से पाला पड़ा था।

सुभद्रा– मगर गालियों का क्या उत्तर होगा?

पद्मसिंह– गालियां।

सुभद्रा– नहीं, गालियों का उत्तर मौन है। गालियों का उत्तर गाली तो मूर्ख भी देते हैं, फिर उनमें और तुममें अंतर ही क्या है?

पद्मसिंह ने सुभद्रा को श्रद्धापूर्ण नेत्रों से देखा। उसकी बात उनके मन में बैठ गई। कभी-कभी हमें उन लोगों से शिक्षा मिलती है, जिन्हें हम अभिमानवश अज्ञानी समझते हैं।

पद्मसिंह– तो मौन धारण कर लूं?

सुभद्रा– मेरी तो यही सलाह है। उसे जो जी में आए, बकने दो। कभी-न-कभी वह अवश्य लज्जति होगा। बस, वही इन गालियों का दंड होगा।

पद्मसिंह– वह लज्जित कभी न होगा। ये लोग लज्जित होना जानते ही नहीं। अभी मैं उसके पास जाऊं, तो मेरा बड़ा आदर करेगा, हंस-हंसकर बोलेगा, लेकिन संध्या होते ही फिर उस पर गालियों का नशा चढ़ जाएगा।

सुभद्रा– तो उसका उद्यम क्या दूसरों पर आक्षेप करना है?

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