उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
पद्मसिंह– नहीं, उद्यम तो यह नहीं है, लेकिन संपादक लोग अपने ग्राहक बढ़ाने के लिए इस प्रकार कोई-न-कोई फुलझड़ी छोड़ते रहते हैं। ऐसे आक्षेपपूर्ण लेखों से पत्रों की बिक्री बढ़ जाती है। जनता को ऐसे झगड़ों में आनंद प्राप्त होता है और संपादक लोग अपने महत्त्व को भूलकर जनता के इस विवाद-प्रेम से लाभ उठाने लगते हैं। गुरुपद को छोड़कर जनता के कलह-प्रेम का आवाहन करने लगते हैं। कोई-कोई संपादक तो यहां तक कहते हैं कि अपने ग्राहक को प्रसन्न रखना हमारा कर्त्तव्य है। हम उनका खाते हैं, तो उन्हीं का गाएंगे।
सुभद्रा– तब तो ये लोग केवल पैसे के गुलाम हैं। इन पर क्रोध करने की जगह दया करनी चाहिए।
पद्मसिंह मेज से उठ आए। उत्तर लिखने का विचार छोड़ दिया। वह सुभद्रा को ऐसी विचारशील कभी न समझते थे। उन्हें अनुभव हुआ कि यद्यपि मैंने बहुत विद्या पढ़ी है, पर इसके हृदय की उदारता तक मैं नहीं पहुंचा। यह अशिक्षित होकर भी मुझसे उच्च विचार रखती है, उन्हें आज ज्ञान हुआ कि स्त्री संतानहीन होकर भी पुरुष के लिए, शांति, आनंद का एक अविरल स्रोत है। सुभद्रा के प्रति उनके हृदय में एक नया प्रेम जाग्रत हो गया। एक लहर उठी, जिसने बरसों के जमे हुए मालिन्य को काटकर बहा दिया। उन्होंने विमल, विशुद्ध भाव से उसे देखा। सुभद्रा इसका आशय समझ गई और उसका हृदय आनंद से विह्वल हो गद्गद हो गया।
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सदन जब सुमन को देखकर लौटा, तो उसकी दशा उस दरिद्र मनुष्य की-सी थी, जिसका वर्षों का धन चोरों ने हर लिया हो।
वह सोचता था, सुमन मुझसे बोली क्यों नहीं, उसने मेरी ओर ताका क्यों नहीं? क्या वह मुझे इतना नीच समझती है? नहीं, वह अपने पूर्व चरित्र पर लज्जित है और मुझे भूल जाना चाहती है। संभव है, उसे मेरे विवाह का समाचार मिल गया हो और मुझे अन्यायी, निर्दयी समझ रही हो। उसे एक बार फिर सुमन से मिलने की प्रबल उत्कंठा हुई। दूसरे दिन वह विधवा-आश्रम के घाट की ओर चला, लेकिन आधे रास्ते से लौट आया। उसे शंका हुई कि कहीं शान्ता की बात चल पड़ी, तो मैं क्या जवाब दूंगा। इसके साथ ही स्वामी गजानन्द का उपदेश भी याद आ गया।
सदन अब कभी-कभी शान्ता के प्रति अपने कर्त्तव्य पर विचार किया करता। महीनों तक सामाजिक अवस्था पर व्याख्या सुनने का उस पर कुछ प्रभाव न पड़ता– यह असंभव था। वह मन में स्वीकार करने लगा था कि हम लोगों ने शान्ता के साथ अन्याय किया है, मगर अभी तक उस कर्त्तव्यात्मक शक्ति का उदय न हुआ था, जो अपमान करती है और आत्मा की आज्ञा के सामने किसी की परवाह नहीं करती।
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