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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


वह इन दिनों बहुत अध्ययनशील हो गया था। दालमंडी और चौक की सैर से वंचित होकर अब उसकी सजीवता इस नए मार्ग पर चल पड़ी। आर्यसमाज के उत्सव में उसने व्याख्यान सुने थे, जिनमें चरित्र-गठन के महत्त्व का वर्णन किया गया था। उनके सुनने से उसका यह भ्रम दूर हो गया था कि मुझे जो कुछ होना था, हो चुका। वहां उसे बताया गया था कि बहुत विद्वान होने से ही मनुष्य आत्मिक गौरव नहीं प्राप्त कर सकता। इसके लिए सच्चरित्र होना परमावश्यक है। चरित्र के सामने विद्या का मूल्य बहुत कम है। वह उसी दिन से चरित्र-गठन और मनोबल संबंधी पुस्तकें पढ़ने लगा और दिनों-दिन उसकी यह रुचि बढ़ती जाती थी। उसे अब अनुभव होने लगा था कि मैं विद्याहीन होकर भी संसार क्षेत्र में कुछ काम कर सकता हूं। उन मंत्रों में इंद्रियों को रोकने तथा मन को स्थिर करने के जो साधन बताए गए थे, उन्हें वह कभी भूलता न था।

वह म्युनिसिपल बोर्ड के उस जलसे में मौजूद था, जब वेश्या संबंधी प्रस्ताव उपस्थित थे। उस तरमीम के स्वीकृत हो जाने से वह बहुत उदासीन हो गया था और अपने चाचा की भूल को स्वीकार करता था, लेकिन जब प्रभाकर राव ने पद्मसिंह पर आक्षेप करना शुरू किया, तो वह अपने चचा के पक्ष का समर्थन करने के लिए उत्सुक होने लगा। उसने दो-तीन लेख लिखे और प्रभाकर राव के पास डाक-द्वारा भेजे। कई दिन तक उसके प्रकाशित होने की आशा करता रहा। उसे निश्चय था कि उन लेखों के छपते ही हलचल मच जाएगी, संसार में कोई बड़ा परिवर्तन हो जाएगा। ज्योंही डाकिया पत्र लाता, वह उसे खोलकर अपने लेखों को खोजने लगता, लेकिन उनकी जगह केवल द्वेष और द्रोह से भरे हुए लेख दिखाई देते। उन्हें पढ़कर उसका धैर्य हाथ से जाता रहा। उसने निश्चय किया कि अब चाहे जो कुछ हो, संपादक महाशय की खबर लेनी चाहिए। अगर वह सज्जन होता, तो मेरे लेखों को छापता। उसकी भाषा अशुद्ध सही, पर वह तर्कहीन तो न थे। उन्हें छिपा रखने से साबित हो गया कि वह सत्यासत्य का निर्णय नहीं करना चाहता, केवल जनता को प्रसन्न करने के लिए नित्य गालियां बकता जाता है। उसने अपने विचारों को किसी पर प्रकट नहीं किया। संध्या समय एक मोटा-सा सोटा लिए हुए ‘जगत’ कार्यालय में पहुंचा। कार्यालय बंद हो चुका था, पर प्रभाकर राव अपने संपादकीय कुटीर में बैठे हुए कुछ लिख रहे थे। सदन बेधड़क भीतर जाकर उनके सामने खड़ा हो गया। प्रभाकर राव ने चौंककर सिर उठाया, तो एक लंबे-चौड़े युवक को डंडा लिए हुए उद्दंड भाव से देखा। रुष्ट होकर बोले– आप कौन हैं?

सदन– मेरा मकान यहीं है। मैं आपसे केवल यह पूछना चाहता हूं कि आप इतने दिनों से पंडित पद्मसिंह को गालियां क्यों दे रहे हैं?

प्रभाकर– अच्छा, आपने ही दो-तीन लेख मेरे पास भेजे थे?

सदन– जी हां, मैंने ही भेजे थे।

प्रभाकर– उनके लिए धन्यवाद देता हूं। आइए, बैठ जाइए। मैं तो आपसे स्वयं मिलना चाहता था, पर आपका पता न मालूम था। आपके लेख बहुत उत्तम और सप्रमाण हैं और मैं उन्हें कभी का निकाल देता, पर गुमनाम लेखों का छापना नियम विरुद्ध हैं, इसी से मजबूर था। शुभ नाम?

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