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उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास)

सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


सुमन– चुप रहो, कैसा अपशकुन मुंह से निकालते हो। मैं मरने की मनाती, तो एक बात थी, जिसके कारण यह सब हो रहा है। इस रामलीला की कैकेयी मैं ही हूं। आप भी डूबी और दूसरों को भी अपने साथ ले डूबी। खड़े कब तक रहोगे, बैठ जाओ। मुझे आज तुमसे बहुत-सी बातें करनी हैं। मुझे क्षमा करना, अब तुम्हें भैया कहूंगी। अब मेरा तुमसे भाई-बहन का नाता है। मैं तुम्हारी बड़ी साली हूं अगर कोई कड़ी बात मुंह से निकल जाए, तो बुरा मत मानना। मेरा हाल तो तुम्हें मालूम ही होगा। तुम्हारे चाचा ने मेरा उद्धार किया और अब मैं विधवा आश्रम में पड़ी अपने दिनों को रोती हूं और सदा रोऊंगी। इधर एक महीने से मेरी अभागिन बहन भी यहां आ गई हैं, उमानाथ के घर उसका निर्वाह न हो सका। शर्माजी को परमात्मा चिरंजीवी करे, वह स्वयं अमोला गए और इसे ले आए। लेकिन यहां लाकर उन्होंने भी इसकी सुधि न ली। मैं तुमसे पूछती हूं, भला यह कहां की नीति है कि एक भाई चोरी करे और दूसरा पकड़ा जाए? अब तुमसे कोई बात छिपी नहीं है, अपने खोटे नसीब से, दिनों के फेर से, पूर्वजन्म के पापों से मुझ अभागिन ने धर्म का मार्ग छोड़ दिया। उसका दंड मुझे मिलना चाहिए था और वह मिला। लेकिन इस बेचारी ने क्या अपराध किया था जिसके लिए तुम लोगों ने इसे त्याग दिया? इसका उत्तर तुम्हें देना पड़ेगा! देखो, अपने बड़ों की आड़ मत लेना, यह कायर मनुष्य की चाल है। सच्चे हृदय से बताओ, यह अन्याय था या नहीं? और तुमने कैसे ऐसा घोर अन्याय होने दिया? क्या तुम्हें एक अबला बालिका का जीवन नष्ट करते हुए तनिक भी दया न आई?

यदि शान्ता यहां न होती, तो कदाचित् सदन अपने मन के भावों को प्रकट करने का साहस कर जाता। वह इस अन्याय को स्वीकार कर लेता। लेकिन शान्ता के सामने वह एकाएक अपनी हार मानने के लिए तैयार न हो सका। इसके साथ ही अपनी कुल मर्यादा की शरण लेते हुए भी उसे संकोच होता था। वह ऐसा कोई वाक्य मुंह से न निकालना चाहता था, जिससे शान्ता को दुःख हो, न कोई ऐसी बात कह सकता था, जो झूठी आशा उत्पन्न करे। उसकी उड़ती हुई दृष्टि ने, जो शान्ता पर पड़ी थी, उसे बड़े संकट में डाल दिया था। उसकी दशा उस बालक की-सी थी, जो किसी मेहमान की लाई हुई मिठाई को ललचाई हुई आंखों से देखता है, लेकिन माता के भय से निकालकर खा नहीं सकता। बोला– बाईजी, आपने पहले ही मेरा मुंह बंद कर दिया है, इसलिए मैं कैसे कहूं कि जो कुछ किया, मेरे बड़ों ने किया। मैं उनके सिर दोष रखकर अपना गला नहीं छुड़ाना चाहता। उस समय लोक-लज्जा से मैं भी डरता था। आप भी मानेंगी कि संसार में रहकर संसार की चाल चलनी पड़ती है। मैं इस अन्याय को स्वीकार करता हूं, लेकिन यह अन्याय हमने नहीं किया, उस समाज ने किया है, जिसमें हम लोग रहते हैं।

सुमन– भैया, तुम पढ़े-लिखे मनुष्य हो। मैं तुमसे बातों में नहीं जीत सकती, जो तुम्हें उचित जान पड़े, वह करो। अन्याय ही है, चाहे कोई एक आदमी करे या सारी जाति करे। दूसरों के भय से किसी पर अन्याय नहीं करना चाहिए। शान्ता यहां खड़ी है, इसलिए मैं उसके भेद नहीं खोलना चाहती, लेकिन इतना अवश्य कहूंगी कि तुम्हें दूसरी जगह धन, सम्मान, रूप, गुण, सब मिल जाए, पर यह प्रेम न मिलेगा। अगर तुम्हारे जैसा उसका हृदय भी होता, तो यह आज अपनी नई ससुराल में आनंद से बैठी होती, लेकिन केवल तुम्हारे प्रेम ने उसे यहां खींचा।

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