उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
सदन ने देखा कि शान्ता की आंखों से जल बहकर उसके पैरों पर गिर रहा है! उसका सरल प्रेम-तृषित हृदय शोक से भर गया। अत्यंत करुण स्वर से बोला– मेरी समझ में नहीं आता कि क्या करूं? ईश्वर साक्षी है कि दुःख से मेरा कलेजा फटा जाता है।
सुमन– तुम पुरुष हो, परमात्मा ने तुम्हें सब शक्ति दी है।
सदन– मुझसे जो कुछ कहिए, करने को तैयार हूं।
सुमन– वचन देते हो?
सदन– मेरे चित्त की जो दशा हो रही है, वह ईश्वर ही जानते होंगे, मुंह से क्या कहूं?
सुमन– मरदों की बातों पर विश्वास नहीं आता।
यह कहकर सुमन मुस्काराई। सदन ने लज्जित होकर कहा– अगर अपने वश की बात होती, तो अपना हृदय निकालकर आपको दिखाता। यह कहकर उसने दबी हुई आंखों से शान्ता की ओर ताका।
सुमन– अच्छा, तो आप इसी गंगा नदी के किनारे शान्ता का हाथ पकड़कर कहिए कि तुम मेरी स्त्री हो और मैं तुम्हारा पुरुष हूं, मैं तुम्हारा पालन करूंगा।
सदन के आत्मिक बल ने जवाब दिया। वह बगलें झांकने लगा, मानो अपना मुंह छिपाने के लिए कोई स्थान खोज रहा है। उसे ऐसा जान पड़ा कि गंगा मुझे छिपाने के लिए बढ़ी चली आती है। उसने डूबने मनुष्य की भांति आकाश की ओर देखा और लज्जा से आंखें नीची किए रुक-रुककर बोला– सुमन, मुझे इसके लिए सोचने का अवसर दो। सुमन ने नम्रता से कहा– हां, सोचकर निश्चय कर लो, मैं तुम्हें धर्मसंकट में नहीं डालना चाहती। यह कहकर वह शान्ता से बोली– देख, तेरा पति तेरे सामने खड़ा है। मुझसे जो कुछ कहते बना उससे कहा, पर वह नहीं पसीजता। वह अब सदा के लिए तेरे हाथ से जाता है। अगर तेरा प्रेम सत्य है और उसमें कुछ बल है, तो उसे रोक ले, उससे प्रेम-वरदान ले ले।
यह कहकर सुमन गंगा की ओर चली गई। शान्ता भी धीरे-धीरे उसी के पीछे चली गई। उसका प्रेम मान के नीचे दब गया। जिसके नाम पर वह यावज्जीवन दुख झेलने का निश्चय कर चुकी थी, जिसके चरणों पर कल्पना में अपने को अर्पण कर चुकी थीं, उसी से वह इस समय तन बैठी। उसने उसकी अवस्था को न देखा, उसकी कठिनाइयों का विचार न किया, उसकी पराधीनता पर ध्यान न दिया। इस समय वह यदि सदन के सामने हाथ जोड़कर खड़ी हो जाती, तो उसका अभीष्ट सिद्ध हो जाता पर उसने विनय के स्थान पर मान करना उचित समझा।
सदन एक क्षण वहां खड़ा रहा और बाद में पछताता हुआ घर को चला।
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