उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
सदन घर की ओर चला तो ऐसा प्रसन्न था, मानों अब उसे जीवन में किसी वस्तु की अभिलाषा नहीं है, मानों उसने किसी बड़े भारी संग्राम में विजय पाई है। सारी रात उसकी आंखों में नींद नहीं आई। वही नाव जो पाल खोले क्षितिज की ओर से चली आती थी, उसके नेत्रों के सामने नाचती रही, वही दृश्य उसे दिखाई देते रहे। उसकी कल्पना एक तट पर एक सुंदर, हरी-भरी लताओं से सजा हुआ झोपड़ा बनाया और शान्ता की मनोहारिणी मूर्ति आकर उसमें बैठी। झोंपड़ा प्रकाशमान हो गया। यहां तक कि आनंद कल्पना ने धीरे-धीरे नदी के किनारे एक सुंदर भवन बनाया, उसमें एक वाटिका लगवाई और सदन उसकी कुंजों में शान्ता के साथ विहार करने लगा। एक ओर नदी की कलकल ध्वनि थी, दूसरी ओर पक्षियों का कलवर गान। हमें जिससे प्रेम होता है, उसे सदा एक ही अवस्था में देखते हैं। हम उसे जिस अवस्था में स्मरण करते हैं, उसी समय के भाव, उसी समय के वस्त्राभूषण हमारे हृदय पर अंकित हो जाते हैं। सदन शान्ता को उसी अवस्था में देखता था, जब वह एक सादी साड़ी पहने, सिर झुकाए गंगातट पर खड़ी थी। वह चित्र उसकी आंखों से न उतरता था।
सदन को इस समय ऐसा मालूम होता था कि इस व्यवस्था में लाभ-ही-लाभ है। हानि की संभावना ही उसके ध्यान से बाहर थी। सबसे विचित्र बात यह थी कि अब तक उसने यह न सोचा था कि रुपए कहां से आएंगे?
प्रातःकाल होते ही उसे चिंता हुई कि रुपयों का प्रबंध करूं? किससे मांगूं और कौन देगा? मांगू किस बहाने से? चचा से कहूं? नहीं, उनके पास आजकल न होंगे। महीनों से कचहरी नहीं जाते और दादा से मांगना तो पत्थर से तेल निकालना है। क्या करूं? यदि इस समय न गया, तो चौधरी अपने मन में क्या कहेगा? वह छत पर इधर उधर टहलने लगा। अभिलाषाओं का वह विशाल भवन, अभी थोड़ी देर पहले उसकी कल्पना ने जिसका निर्माण किया था, देखते-देखते गिरने लगा। युवाकाल की आशा पुआल की आग है, जिसके जलने और बुझने में देर नहीं लगती।
अकस्मात् सदन को एक उपाय सूझ गया। वह जोर से खिलखिलाकर हंसा, जैसे कोई अपने शत्रु को भूमि पर गिराकर बेहंसी की हंसी हंसता है। वाह! मैं भी कैसा मूर्ख हूं। मेरे संदूक में मोहनमाला रखी हुई है। तीन सौ रुपए से अधिक की होगी। क्यों न उसे बेच डालूं? जब कोई मांगेगा; देखा जाएगा। कौन मांगता है और किसी ने मांगी भी, तो साफ-साफ कह दूंगा कि बेचकर खा गया। जो कुछ करना होगा, कर लेगा और अगर उस समय तक हाथ में कुछ रुपए आ गए, तो निकालकर फेंक दूंगा। उसने आकर संदूक से माला निकाली और सोचने लगा कि इसे कैसे बेचूं। बाजार में कोई गहना बेचना अपनी इज्जत बेचने से कम अपमान की बात नहीं है। इसी चिंता मैं बैठा था कि जीतन कहार कमरे में झाडू देने आया। सदन को मलिन देखकर बोला– भैया, आज उदास हो, आंखें चढ़ी हुई हैं, रात को सोए नहीं क्या?
सदन ने कहा– आज नींद आई। सिर पर एक चिंता सवार है।
जीतन– ऐसी कौन-सी चिंता है? मैं भी सुनूं।
सदन– तुमसे कहूं तो तुम अभी सारे घर में दोहाई मचाते फिरोगे।
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