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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


जीतन– भैया, तुम्हीं लोगों की गुलामी में उमिर बीत गई। ऐसा पेट हल्का होता, तो एक दिन न चलता। इससे निसाखातिर रहो।

जिस प्रकार एक निर्धन किंतु शीलवान मनुष्य के मुंह से बड़ी कठिनता, बड़ी विवशता और बहुत लज्जा के साथ ‘नहीं’ शब्द निकलता है, उसी प्रकार सदन के मुंह से निकला– मेरे पास एक मोहनमाला है, इसे कहीं बेच दो। मुझे रुपयों का काम है।

जीतन– तो यह कौन बड़ा काम है, इसके लिए क्यों चिंता करते हो? मुदा रुपए क्या करोगे? मालकिन से क्यों नहीं मांग लेते हो? वह कभी नाहीं नहीं करेंगी। हां, मालिक से कहो तो न मिलेगा। इस घर में मालिक कुछ नहीं हैं, जो हैं वह मालकिन हैं।

सदन– मैं घर में किसी से नहीं मांगना चाहता।

जीतन ने माला लेकर देखी, उसे हाथों से तौला और शाम तक उसे बेच लाने की बात कहकर चला गया। मगर बाजार न जाकर वह सीधे अपनी कोठरी में गया, दोनों किवाड़ बंद कर लिए और अपनी खाट के नीचे की भूमि खोदने लगा थोड़ी देर में मिट्टी की एक हांडी निकल आई। यही उसकी सारे जन्म की कमाई थी, सारे जीवन की किफायत, कंजूसी, काट-कपट, बेईमानी, दलाली, गोलमाल, इसी हांडी के अंदर इन रुपयों के रूप में संचित थी। कदाचित् इसी कारण रुपयों के मुंह पर कालिमा भी लग गई थी। लेकिन जन्म भर के पापों का कितना संक्षिप्त फल था। पाप कितने सस्ते बिकते हैं।

जीतन ने रुपए गिनकर बीस-बीस रुपए की ढेरियां लगाई। कुल सत्रह ढेरियां लगाई। कुल सत्रह ढेरियां हुई। तब उसने तराजू पर माला को रुपयों से तौला। यह पच्चीस रुपए भर से कुछ अधिक थी। सोने की दर बाजार में चढ़ी हुई थीं, पर उसने एक रुपए भर के पच्चीस रुपए ही लगाए। फिर रुपयों की पच्चीस-पच्चीस की ढेरियां बनाईं। तेरह ढेरियां हुई और पंद्रह रुपए बच रहे। उसके कुल रुपए माला के मूल्य से दो सौ पिचासी रुपए कम थे। उसने मन में कहा, अब यह चीज हाथ से नहीं जाने पाएगी। कह दूंगा, माला तेरह ही भर थी! पंद्रह और बच जाएंगे। चलो मालारानी, तुम इस दरबे में आराम से बैठो।

हांडी फिर धरती के नीचे चली गई। पापों का आकार और भी सूक्ष्म हो गया। जीतन इस समय उछला पड़ता था। उसने बात-की-बात में दो सौ पिचासी रुपए पर हाथ मारा था। ऐसा सुअवसर उसे कभी नहीं मिला था। उसने सोचा, आज अवश्य किसी भले आदमी का मुंह देखकर उठा था। बिगड़ी हुई आंखों के सदृश बिगड़े हुए ईमान में प्रकाश-ज्योति प्रवेश नहीं करती।

दस बजे जीतन ने तीन सौ पच्चीस रुपए लाकर सदन के हाथों में दिए। सदन को मानो पड़ा हुआ धन मिला।

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