उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
रुपए देकर जीतन ने निःस्वार्थ भाव से मुंह फेरा। सदन ने पांच रुपए निकालकर उसकी ओर बढ़ाए और बोला– ये लो, तमाकू-पान।
जीतन ने ऐसा मुंह बनाया, जैसा कोई वैष्णव मदिरा देखकर मुंह बनाता है, और बोला– भैया, तुम्हारा दिया तो खाता ही हूं, यह कहां पचेगा?
सदन– नहीं-नहीं, मैं खुशी से देता हूं। ले लो, कोई हरज नहीं है।
जीतन– नहीं भैया, यह न होगा। ऐसा करता तो अब तक तो चार पैसे का आदमी हो गया होता। नारायण तुम्हें बनाए रखें।
सदन को विश्वास हो गया कि यह बड़ा सच्चा आदमी है। इसके साथ अच्छा सलूक करूंगा।
संध्या समय सदन की नाव गंगा की लहरों पर इस भांति चल रही थी, जैसे आकाश में मेघ चलते हैं। लेकिन उसके चेहरे पर आनंद-विकास की जगह भविष्य की शंका झलक रही थी, जैसे कोई विद्यार्थी परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद चिंता में ग्रस्त हो जाता है। उसे अनुभव होता है कि वह बांध, जो संसार रूपी नदी की बाढ़ से मुझे बचाए हुए था, टूट गया है और मैं अथाह सागर में खड़ा हूं। सदन सोच रहा था कि मैंने नाव तो नदीं में डाल दी, लेकिन यह पार भी लगेगी? उसे अब मालूम हो रहा था कि वह पानी गहरा है, हवा तेज है और जीवन-यात्रा इतनी सरल नहीं है, जितनी मैं समझता था। लहरें यदि मीठे स्वरों में गाती हैं, तो भयंकर ध्वनि से गरजती है, हवा अगर लहरों को थपकियां देती है, तो कभी-कभी उन्हें उछाल भी देती है।
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प्रभाकर राव का क्रोध बहुत कुछ तो सदन के लेखों से ही शांत हो गया था और जब पद्मसिंह ने सदन के आग्रह से सुमन का पूरा वृत्तांत उन्हें लिख भेजा, तो वह सावधान हो गए।
म्युनिसपैलिटी में प्रस्ताव को पास हुए लगभग तीन मास बीत गए, पर उसकी तरमीम के विषय में तेगअली ने जो शंकाए प्रकट की थीं, वह निर्मूल प्रतीत हुईं। न दालमंडी के कोठों पर दुकानें ही सजीं और न वेश्याओं ने निकाह-बंधन से ही कोई विशेष प्रेम प्रकट किया! हां, कई कोठे खाली हो गए। उन वेश्याओं ने भावी निर्वासन के भय से दूसरी जगह रहने का प्रबंध कर लिया। किसी कानून का विरोध करने के लिए उससे अधिक संगठन की आवश्यकता होती है, जितनी उसके जारी करने के लिए। प्रभाकर राव का क्रोध शांत होने का यह एक और कारण था।
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