उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
सदन की अवस्था अब ऐसी थी कि वह गृहस्थी का बोझ उठा सके, लेकिन अपने चचा की सम्मति के बिना वह शान्ता को लाने का साहस न कर सकता था। वह घर पर पद्मसिंह के साथ भोजन करने बैठता, तो निश्चय कर लेता कि आज इस विषय को छेड़कर तय कर लूंगा। पर उसका इरादा कभी पूरा न होता, उसके मुंह से बात ही न निकलती।
यद्यपि उसने पद्मसिंह से इस व्यवसाय की चर्चा न की थी, पर उन्हें लाला भगतराम से सब हाल मालूम हो गया था। वह सदन की उद्योगशीलता पर बहुत प्रसन्न थे। वह चाहते थे कि एक-दो नावें और ठीक कर लीं जाएं और कारोबार बढ़ा लिया जाए। लेकिन जब सदन स्वयं कुछ नहीं कहता था, तो वह भी इस विषय में चुप रहना ही उचित समझते थे। वह पहले ही उसकी खातिर करते थे, अब कुछ आदर भी करने लगे और सुभद्रा तो उसे अपने लड़के के समान मानने लगी।
एक दिन, रात के समय सदन अपने झोंपड़े में बैठा हुआ नदी की तरफ देख रहा था। आज न जाने क्यों नाव के आने में देर हो रही थी। सामने लैंप जल रहा था। सदन के हाथ में एक समाचार-पत्र था, पर उसका ध्यान पढ़ने में न लगता था। नाव के न आने से उसे किसी अनिष्ट की शंका हो रही थी। उसने पत्र रख दिया और बाहर निकलकर तट पर आया। रेत पर चांदनी की सुनहरी चादर बिछी हुई थी और चांद की किरणें नदी के हिलते हुए जल पर ऐसी मालूम होती थीं, जैसे किसी झरने से निर्मल जल की धारा क्रमशः चौड़ी होती हुई निकलती है। झोंपड़े के सामने चबूतरे पर कई मल्लाह बैठे हुए बातें कर रहे थे कि अकस्मात् सदन ने दो स्त्रियों को शहर की ओर से आते देखा। उनमें से एक ने मल्लाहों से पूछा– हमें उस पार जाना है, नाव ले चलोगे?
सदन ने शब्द पहचाने। यह सुमनबाई थी। उसके हृदय में एक गुदगुदी-सी हुई, आंखों में एक नशा-सा आ गया। लपककर चबूतरे के पास आया और सुमन से बोला– बाईजी, तुम यहां कहां?
सुमन ने ध्यान से सदन को देखा, मानो उसे पहचानती ही नहीं। उसके साथ वाली स्त्री ने घूंघट निकाल लिया और लालटेन के प्रकाश से कई पग हटकर अंधेरे में चली गई। सुमन ने आश्चर्य से कहा– कौन? सदन?
मल्लाहों ने उठकर घेर लिया, लेकिन सदन ने कहा– तुम लोग इस समय यहां से चले जाओ। ये हमारे घर की स्त्रियां हैं, आज यहीं रहेंगी। इसके बाद वह सुमन से बोला– बाईजी, कुशल समाचार कहिए। क्या माजरा है?
सुमन– सब कुशल ही है, भाग्य में जो कुछ लिखा है, वही भोग रही हूँ। आज का पत्र तुमने अभी न पढ़ा होगा। प्रभाकर राव ने न जाने क्या छाप दिया कि आश्रम में हलचल मच गई। हम दोनों बहनें वहां एक दिन भी और रह जातीं, तो आश्रम बिल्कुल खाली हो जाता। वहां से निकल आने में कुशल थी। अब इतनी कृपा करो कि हमें उस पार ले जाने के लिए एक नाव ठीक कर दो। वहां से हम इक्का करके मुगलसराय चली जाएंगी। अमोला के लिए कोई-न-कोई गाड़ी मिल ही जाएगी। यहां से रात कोई गाड़ी नहीं जाती?
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